नरक कहीं और नहीं है, कोई भौगोलिक अवस्था नहीं है - न स्वर्ग कोई भौगोलिक अवस्था है- नरक अहंकार से भरे हुए मन का नाम है। और स्वर्ग अहंकार से शून्य मन का नाम है। जहां अहंकार नहीं, वहां सुख की वर्षा हो जाती है। और जहां अहंकार है, वहां दुखों के अम्बार लग जाते हैं। कौन इनको दूर करेगा? प्रत्येक व्यक्ति को ही अपना मुक्ता होना है।
हमेशा से ही मन की शांति, सुख आदि की बातें अध्यात्म की दुनिया में होती रही हैं। सभी सुख चाहते हैं फिर चाहे वह योगी हो या फिर भोगी हो। मन की शांति और सुख की खोज में कोई सन्यासी हो गया। कुछ लोग सुख की खोज में लोग भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाने में लग गये। क्या इन सब से वास्तव में सुख पाया जा सकता है या सुख को भौतिक सुविधाओं से जुटाया जा सकता है? एक कहावत भी है कि संतुष्टि ही परम सुख है। हमें और चाहिए, किसी भी चीज धन-दौलत, शौहरत, नाम आदि से हम तृप्त नहीं हो पाते, हमें और चाहिए। इसी प्रयास में लगे रहते हैं और दुखी रहते हैं।
यह सवाल प्रार्थना का नहीं, बोध का है।
जो लोग दुखी हैं, वे स्वयं जिम्मेवार हैं।
सुख और दुख की परिभाषा क्या है?
क्या दृष्टिकोण ही सुख-दुख की परिभाषा तय करता है। क्या दुख के जिम्मेदार हम स्वयं ही हैं।
ओशो कहते हैं कि तुम अपनी पीड़ा के लिए खुद जिम्मेदारी हो, कोई इसका अंत नहीं कर सकता जब तक तुम इस ‘मैं’ को न छोड़ दो। इसलिए बुद्ध ऐसी बात नहीं कहेंगे कि प्रार्थना करो। बुद्ध कहेंगे, तुम्हें समझ में आ गया, औरों को समझाओ, प्रार्थना का सवाल नहीं उठता। कौन मिटाएगा? कोई है कहीं बैठा आकाश में जो उनके दुख मिटा दे? और अगर बैठा होता तो कितनी सदियों से तो तुम प्रार्थना कर रहे हो, हवन कर रहे हो, यज्ञ कर रहे हो- क्या-क्या मूढ़ताएं नहीं कर रहे हो- अभी तक उसने सुना नहीं? बहरा है तुम्हारा परमात्मा बिल्कुल? तुम्हारे ऋषि-मुनि थक गये चिल्ला-चिल्लाकर, पंडित-पुरोहित मंदिरों के घंटे बजा-बजाकर कर मर गये, उनके कानों तक कोई खबर नहीं पहुंची, जूं तक नहीं रेंगी, दुनिया का दुख बढ़ता ही चला गया। जितनी प्रार्थना चली, उतना ही दुख बढ़ा। प्रार्थना में कहीं बुनियादी भूल है। यह सवाल प्रार्थना का नहीं है, बोध का है। और बोध तो प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं का होना होगा।
तुम उत्तरदायी हो अगर दुखी हो। कोई जिम्मेदार नहीं है। इसमें तो यह भ्रांति छिपी है कि जैसे परमात्मा लोगों को दुख दे रहा है। इसलिए प्रार्थना कर रहे हैं कि भैया, अब मत दुख दो! अब बहुत हो गया! अब दुख देना बंद करो! जैसे परमात्मा जिम्मेदार है। जिम्मेवार तुम हो, प्रार्थना किससे हो रही है? इस भ्रांति को छोड़ो। तुम्हारी पीड़ा के तुम जनक हो, निर्माता तुम हो, सर्जक तुम हो, मिटा भी तुम्हीं सकते हो, कोई और नहीं मिटा सकता है। यह तुम्हारी काल्पनिक पीड़ा है। तुम सड़ रहे हो, गल रहे हो, तुम नरक में पड़े हो, लेकिन नरक तुम्हारा ही निर्माण है। नरक कहीं और नहीं है, कोई भौगोलिक अवस्था नहीं है - न स्वर्ग कोई भौगोलिक अवस्था है- नरक अहंकार से भरे हुए मन का नाम है। और स्वर्ग अहंकार से शून्य मन का नाम है। जहां अहंकार नहीं, वहां सुख की वर्षा हो जाती है। और जहां अहंकार है, वहां दुखों के अम्बार लग जाते हैं। कौन इनको दूर करेगा? प्रत्येक व्यक्ति को ही अपना मुक्ता होना है।
प्रत्येक व्यक्ति को ही अपने को मुक्ति देनी है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति ने ही अपने हाथ में जंजीरे डाली हैं। कोई दूसरा तुम्हारी जंजीरें तोड़ भी दे, तुम फिर डाल लोगे जब तक कि तुम्हें ही इस बात का बोध न हो जाए। मैं सन्यासी उस व्यक्ति को कहता हूं, जिसने यह स्वीकार किया कि मैं उत्तरदायी हूं अपने सारे दुखों के लिए। और जब यह कोई स्वीकार कर लेता है कि मैं उत्तरदायी हूं, तो आधी समस्या हल हो जायेगी। कुछ न किया और आधी मंजिल आ गयी। जैसे ही तुमने यह स्वीकार कर लिया कि मैं जिम्मेदार हूं अपने दुखों का, तुम्हें दूसरी बात भी साफ हो गयी कि चाहूं तो अभी छोड़ दूं ये सारे दुख। और चाहूं तो जो ऊर्जा मैंने दुखों में नियोजित की है, वही ऊर्जा सुखों में नियोजित कर दूं। मेरे हाथ का खेल है।
एक सूफी फक़ीर जब मरा तो उसके शिष्यों ने पूछा कि हम वर्षों से आपको देख रहे हैं- कुछ तो ऐसे शिष्य थे जो पचास साल से उसके साथ थे- उन्होंने कहा कि एक बात हमें चकित करती रही है, बार-बार हम पूछते भी रहे, आप हंसते हैं और टाल जाते हैं, आपको हमने कभी दुखी नहीं देखा, कभी उदास भी नहीं देखा। जब देखा तब ताजा। जब देखा तब फूल की तरह खिले हुए। जब देखा तब आनदिंत। क्या राज है इसका? उस फकीर ने कहा, अब मैं मर ही रहा हूं, तुम्हें राज बता देता हूं। आज से पचास साल पहले मैं दुखी आदमी था। तुम कुछ भी नहीं हो। तुम क्या खाक दुखी हो! मेरे दुख का कोई अंत नहीं था। मैं चौबीस घंटे दुख में सड़ रहा था। मेरा ढंग ही ऐसा था कि उसमें दुख ही निकल सकता था। अगर मैं गुलाब के पास भी खड़ा होता तो कांटे ही गिनता था, फूल नहीं देखता था। और जो आदमी कांटे गिनेगा, उसके हाथ कांटों से बिंध जाएंगे_ लहूलुहान हो जाएंगे। जिसके हाथ लहूलुहान हो जाएंगे, आंखें आंसुओं से भर जाएंगी, उसकी क्या खाक फूल दिखाई पड़ेंगे! उसे फूल दिखाई पड़ जाएं तो भरोसा न आएगा। क्योंकि सवाल यह उठेगा कि हजारों कांटों में फूल खिल कैसे सकता है? जरूर मुझे कुछ भ्रम हो रहा है।
उस फकीर ने कहा कि लोग तो कहते हैं कि हर काली बदली में भी एक रजत- रेखा होती है, 'Every Clause is a silver line’ मगर मेरी अपनी और ही धारणा थी। मेरी धारणा यह थी कि जहां भी रजत रेखा होती है, उसके आसपास एक महान काली बदली होती है।
वह मेरे देखने का ढंग था। लोग कहते हैं कि दो दिनों के बीच एक रात होती है, और गुजर जाएगी। और मैं सोचता था कि यह किस मूरख ने दुनिया बनायी, कि दो रातों के बीच एक छोटा सा दिन, जो आया और गया- और फिर अंधेरी रात है। मैं दुखों को ही खोजता था। मैं दुख ही चुनता था। इसलिए दुखी हूं।
फिर एक दिन मैं सुबह उठा और मैंने कहा, कब तक मैं दुखी रहूंगा? कब तक दुखी रहना है? और उस समय मुझे यह साफ हो गया कि यह मेरे हाथ में है। मेरा गणित गलत है। मेरा हिसाब गलत है। मैं नकारात्मक ही सोचता हूं। मैं निराशा को ही चुनता हूं। निषेद ही मेरे चिन्तन का आधार है, विधेय नहीं। उस सुबह मुझे यह साफ हो गया कि अगर दुखी रहना है तो दुखी रह सकता हूं और अगर मुझे सुखी रहना है तो मैं सुखी रह सकता हूं। तो मैंने सोचा, आज प्रयोग करके देखूं, आज सुखी ही रहूंगा, जीवन के सुख के ढंग से देखूंगा। और वह आखिरी दिन था मेरे दुख का। उस दिन मैं पूरे चौबीस घंटे सुखी रहा। मैं हैरान हो गया। तब से हर रोज सुबह उठता हूं और अपने से कहता हूं कि बोल, क्या इरादा है? आज सुखी होना है या दुखी? और हमेशा मैं सुखी होने के पक्ष में ही निर्णय लेता हूं। किसको दुखी होना है। पचास साल हो गये उस बात को गये, अब तो दुख मुझे यूं लगता है जैसे कभी था ही नहीं। कोई दुख स्वप्न देखा हो, जो कब का खो गया। या जैसे किसी कहानी में बात पढ़ी हो, जिससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं।
मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं। कोई तुम्हारा दुख मिटाएगा नहीं। तुम इस भ्रांति को छोड़ दो। इसी भ्रांति के कारण तुम दुख में सड़ रहे हो। जाकर मंदिर में प्रार्थना करते हो कि हे प्रभु, हे तारणकर्ता, हरो मेरे दुख! तुम जरा गौर से तो सोचो, इसका मतलब यह हुआ कि उसने दिया होगा, तो ही कर सकता है। उसने बनाया होगा, तो ही मिट सकता है। अगर बनाने वाला वह नहीं है तो मिटाने वाला वह कैसे हो सकेगा? और अगर तुम बनाने वाले हो तो वह लाख मिटाये, तुम फिर वही कर लोगे। क्या भेद पड़ेगा? तो लोग कह रहे हैं कि हम तो पापी हैं, हम तो दुखी हैं और तुम तो महान हो और तुम्हारी करुणा महान है, दया करो, अब दुख से छुटकारा दिलाओ। मगर ये प्रार्थनाएं चलती रहती हैं और दुख भी बनता रहता है, कहीं कोई प्रार्थना का परिणाम नहीं होता।
यह सवाल प्रार्थना का नहीं, बोध का है।
जो लोग दुखी हैं, वे स्वयं जिम्मेवार हैं। लेकिन आदमी हजार-हजार तरकीबों से अपनी जिम्मेदारी को टालने की कोशिश की है। तरकीबें बदलती रहीं, आदमी वही का वही, दुख वही का वही। पहले आदमी कहता था, विधि का विधान है, क्या करें, किस्मत में लिखा है। यह तरकीब हुई। करते तुम हो और कहते हो, विधाता ने लिख दिया, अब हम करें क्या? खोपड़ी में लिख दिया! खोपड़ी में कुछ भी नहीं लिखा हुआ कोई लिखावट नहीं है। मगर तरकीब थी पुरानी कि विधि का विधान है, विधाता ने लिख दिया। विधाता क्यों लिखेगा? विधाता कोई पागल है, विक्षिप्त है कि तुम्हारा दुख लिख देगा। प्रभु की मर्जी है यह, कि तुम्हें सताने में रस लेने वाला कोई पागल है कि इसके कारण इतना दुख हो रहा है।
फिर यह बात पुरानी पड़ गयी। तो कार्ल मार्क्स ने कहा कि समाज की व्यवस्था! क्या कर सकता है आदमी? आर्थिक व्यवस्था! राजनैतिक व्यवस्था! यह समाज है जो दुख पैदा कर रहा है। लोगों को यह बात जंची। लोगों को हमेशा यह बात जंचती है कि कोई और जिम्मेदार हो। यह बात अखरती है कि कोई कहे कि तुम जिम्मेदार हो। बुद्ध पसंद नहीं आए, जीसस पसंद नहीं आए, सुकरात पसंद नहीं आए, लेकिन कार्ल मार्क्स पसंद आया। आधी दुनिया कम्यूनिस्ट हो गयी। लेकिन रास्ता वही है। क्योंकि अब पुराना ढंग विधि विधान का तो हो गया, पुराना हिसाब कि कर्मों के कारण हम फल भोग रहे हैं, पिछले जन्मों में बुरे कर्म किये थे? वह उसके पिछले जन्म में, उसके कारण। और उस जन्म में क्यों नहीं किये थे? वह उसके पिछले जन्म में। तो जरा यह भी सोचो कि पहला जन्म कभी हुआ था, उसमें क्यों बुरे काम किये थे? उसके पहले तो कोई जन्म नहीं था। मगर यह तरकीबें टालने की हैं। अपने कंधे से किसी तरह बात दूसरे पर चली जाए। यह दुख को बचाने का उपाय है, यह सुरक्षा है, यह कवच है।
मार्क्स ने समझा दी नयी तरकीब। मार्क्स समझता है कि उसने कोई क्रांति ला दी! कुछ क्रांति नहीं लायी, सिर्फ शब्द सरल दिये। विधि-विधान न रहा, कर्म का सिद्धांत न रहा, समाज की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था जिम्मेदार हो गयी। आदमी फिर वहीं के वहीं। तो रूस में तुम सोचते हो कि लोग सुखी हो गये हैं? चीन में सुखी हो गये हैं? जरा भी सुखी नहीं हो गये हैं। हां, इतना जरूर है कि अब अपने दुख की बात भी नहीं कर सकते हैं, इतने दुखी कर दिये गये हैं। कि अब दुख है, यह कहने की हिम्मत नहीं। अब दीवारों को कान हैं। अब जिसने कहा दुख है, उसका फैसला कर दिया जायेगा। उसका खात्मा कर दिया जाएगा। अब तो कितने ही दुखी रहो, कहना तो यही कि सब सुख ही सुख है। अपनी पत्नी से भी पति डरता है कहने में, क्योंकि पत्नी भी स्त्रियों के कम्युनिस्ट दल की सदस्या है। अपने बच्चों से बाप डरते हैं कहने में, क्योंकि बच्चे बच्चों की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं। वे जाकर खबर दे देंगे। और हर एक को समझाया जाता है, बच्चों को समझाया जाता है कि साम्यवाद सबसे ऊपर है। तुम्हारे माता-पिता अगर कोई खिलाफ बात करता है, तो फौरन खबर दो। पत्नियों को समझाया जाता है कि पति तो सांयोगिक बात है, असली चीज तो साम्यवाद है, समाजवाद है। सर्वोपरि बात वही है। अगर पति कुछ खिलाफ बात करते हों तो खबर करो। हर एक घर में जासूस बैठ गये। दुख भारी है। लेकिन कोई कुछ कह नहीं सकता, कोई कुछ बोल नहीं सकता।
मैंने सुना कि कुत्तों की एक प्रदर्शनी पेरिस में थी। यह कथा कम्यूनिज़्म के जमाने की है। रूसी कुत्ते भी भाग लेने आये थे। फ्रेंच कुत्तों ने पूछा कि भई, रूस के कुछ हालचाल कहो। बड़ी मुश्किल से रूसियों से मिलना होता है। तो कुत्तों ने कहा, आनन्द ही आनन्द है। सुख ही सुख है। स्वर्ग है। लेकिन जब प्रदर्शनी खत्म होने लगी तो रूसी कुत्तों ने फ्रेंच कुत्तों से कहा कि कोई तरकीब बताओ कि अब हमें रूस न जाना पड़े। उन्होंने कहा, अरे, स्वर्ग ही स्वर्ग है, रूस क्यों नहीं जाना चाहते? उन्होंने कहा, और सब तो ठीक है, भौंकने की आजादी बिल्कुल नहीं। अब क्या खाक करें स्वर्ग का, जहां भौंक ही न सकते हों। और कुत्ते का सबसे बड़ा सुख कि भौंकने की आजादी होनी चाहिए। विचार स्वतंत्रता! उसने कहा, और सब तो ठीक है- अरे, लाख मक्खन खिलाओ, मगर खाकर भी क्या करेंगे जब भौंक ही नहीं सकते। आत्मा को ही मार डाला गया हो। अब जाने की इच्छा नहीं है। यहां कम से कम भौंकने की आजादी तो है। वहां गले में सुरसुरी चलती रहती है, मगर दबाए बैठे रहो। संयम साधना पड़ता है। भौंक नहीं सकते।
रूस से लोग बाहर क्या निकल जाते हैं, फिर लौटना नहीं चाहते। कैसा सुख है यह? जो बाहर निकल गया, वह फिर पीछे नहीं लौटता।
इस तरह सुख नहीं हो सकता। यह बात फिर टाल दी गयी। सुख के लिए एक आधारभूत नियम ख्याल में रख लो, मैं जिम्मेवार हूं अपने दुख का, मैं निर्माता हूं, मैं सृष्टा हूं। न कोई पिछले जन्म, न कोई भाग्य, न कोई भगवान, न कोई समाज, न कोई व्यवस्था। मैं, मेरा अहंकार, मेरी मूढ़ता, मेरा अज्ञान, मेरी मूर्च्छा। कष्ट होता है इस बात को स्वीकार करने में। पीड़ा होती है इस बात को स्वीकार करने में। मगर इस पीड़ा को जो स्वीकार कर लेता है, उसके जीवन में क्रांति की शुरूआत है। क्योंकि यह आधा पहलू। जैसे यह समझ आ गया, तब तुम्हारे हाथ में है। बदल दो! बदल दो जिंदगी का ढंग फिर। मोड़ दो नाव। फिर कोई तुम्हें रोकने वाला नहीं है। ऐसे ही मैंने आनन्द जाना है।
जिंदगी के सब पहलू तुम्हारे हाथ में हैं, तुम मालिक हो। यह मैं अपने अनुभव से कहता हूं। यह मैं किसी शास्त्र की बात नही दोहरा रहा हूं, यह मेरे स्वयं का अनुभव है और इसलिए मैं जरा भी स्वीकार नहीं कर सकता, कोई लाख कहे कि कोई जिम्मेवार है। मैं भी दुखी था, जैसे तुम दुखी हो, जैसे कोई भी दुखी है, लेकिन जिस दिन यह बात समझ में आ गयी कि मैं जिम्मेवार हूं, उसी दिन से क्रांति हो गयी। उसी दिन से महल में उजाला हो गया। उसी दिन से दिया जल गया।
-ओशो, दीपक बारा नाम का, प्रवचन-1
सुख और दुख, दृष्टिकोण के आधार पर ही निश्चित होंगे। अगर हम आत्ममंथन करें, और अपना दृष्टिकोण बदलें तो समस्याएं आधी से अधिक स्वयं ही हल हो जायेंगी। अंधकार स्वयं ही मिट जायेगा।
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