योग को परिभाषित करना आसान नहीं है क्योंकि यह पल पल रूपांतरित होने वाली प्रक्रिया है। जो व्यक्ति योग का नियमित अभ्यास करता है और अभस्थ हो जाता है। वह आत्मा के प्रकाश को देखने लगता है। जिस प्रकाश को हमारी आंखें देखती है वह प्रकाश बाहरी है। बाहरी प्रकाश का किसी न किसी स्रोत के द्वारा ही होता है जैसे बिजली अथवा सूर्य, जबकि आंतरिक प्रकाश का कोई स्रोत नहीं है। आंतरिक प्रकाश, स्वयं में ही एक स्रोत है। वही आपकी आत्मा है।
योग एक समुद्र है और योग से निकली छोटी-छोटी धाराएं नदियों की तरह है| योग के समुद्र में जिसने गोता लगा लिया, उसका संपूर्ण जीवन ही बदल जाता है। योग को परिभाषित करना आसान नहीं है क्योंकि यह पल पल रूपांतरित होने वाली प्रक्रिया है।जो व्यक्ति योग का नियमित अभ्यास करता है और अभस्थ हो जाता है| वह आत्मा के प्रकाश को देखने लगता है। जिस प्रकाश को हमारी आंखें देखती है वह प्रकाश बाहरी है| बाहरी प्रकाश का किसी न किसी स्रोत के द्वारा ही होता है जैसे बिजली अथवा सूर्य, जबकि आंतरिक प्रकाश का कोई स्रोत नहीं है। आंतरिक प्रकाश, स्वयं में ही एक स्रोत है। वही आपकी आत्मा है।
आत्म प्रकाश को जानना और इस आत्म प्रकाश की रोशनी में उस परमात्मा की झलक देखने लगना, इसी को आत्मा से परमात्मा का योग कहा गया है और योग करने वाले व्यक्ति को यही अनुभव होता है।
योग के अनेक प्रकार हैं| मसलन सांख्य योग,ज्ञान योग,भक्ति योग,लय योग हठ योग, राजयोग, सहज योग, क्रिया योग, ध्यान योग, समाधि योग, पतंजलि योग, हिरण्यगर्भ योग, मृत्युंजय योग, नाद बिंदु योग, योग को आप किसी भी नाम से पुकारे लेकिन योग, अपने आप में संपूर्ण है|
ध्यान किसे कहते हैं
ध्यान, आता है, तो मन जाता है। मन, संसार का द्वार है।
ध्यान, मोक्ष का द्वार है । मन ने जिसे पाया है, ध्यान से वह खो जाता है। जिसे मन ने खोया है, ध्यान में वह मिल जाता है।
ध्यान, योग का आठवां अति महत्वपूर्ण अंग है। ध्यान ही एक मात्र ऐसा तत्व है जिसे साधने से, सभी स्वतः ही सधने लगते हैं। ध्यान दोनों दुनिया के बीच खड़े होने की स्थिति है।
‘‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।’’ अर्थात जहां चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना, ध्यान है, उसमें जाग्रत रहना ही ध्यान है।
ध्यान और योग में कोई अंतर नही है बल्कि ध्यान, योग का ही एक अंग है । आसन और प्राणायाम सिर्फ योग सिद्ध करने के साधन हैं। महर्षि पतंजलि के अनुसार अष्टांग योग में यम, नियम, आसान , प्राणायाम , प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि ये योग के आठ अंग है । अतः महर्षि पतंजलि के अनुसार ध्यान अष्टांग योग का छठा अंग है।
ओशो कहते हैं-
‘मनुष्यता को बचाए रखने के लिए तथा पृथ्वी को अब भी जीवित रखने के लिए ध्यान, पूरी तरह आवश्यक हो गया है। ध्यान का अर्थ बस इतना है, अपने कार्यकलापों में संलग्न रहते हुए भी अलिप्त बने रहने की क्षमता। यह विरोधाभासी लगता है- सभी महान सत्य विरोधाभासी होते हैं। तुम्हें इस विरोधाभास को अनुभव करना होगा, उसे समझने का यही एकमात्र उपाय है। तुम किसी काम को प्रसन्नतापूर्वक कर सकते हो, और फिर भी साक्षी बने रहो कि तुम इसे कर रहे हो, लेकिन तुम इसके कर्ता नहीं हो।’
ध्यान करने की क्या विधि है?
ओशो मां प्रिया द्वारा- निर्विचार चेतना, ध्यान है और निर्विचारणा के लिए विचारों के प्रति जागना ही विधि है। विचारों का सतत् प्रवाह है मन। इसी प्रवाह के प्रति मूर्छित होना, सोये होना, अजाग्रत होना, साधारणतः हमारी स्थिति है।
इसी मूर्छा से पैदा होता है- तादाम्य। मैं, मन ही मालूम होने लगता हूं जागें और विचारों को देखें।
जैसे कोई राह चलते लोगों को किनारे खड़े होकर यदि देखें। बस, इसे जागकर देखने से क्रांति घटित होती है। विचारों से स्वयं का तादाम्य टूटता है। इस तादाम्य-भंग के अंतिम छोर पर ही निर्विचार चेतना का जन्म होता है। ऐसे ही, जैसे आकाश में बादल फट जाएं, तो आकाश दिखाई पड़ता है। विचारों से रिक्त चित्ताकाश ही स्वयं की मौलिक स्थिति है। वही समाधि है।
ध्यान है विधि।
समाधि है उपलब्धि।
लेकिन, ध्यान के संबंध में सोचें मत। ध्यान के संबंध में विचारना भी विचार ही है। उसमें तो उतरें---डूबें। ध्यान को सोचें
मत----चखें।
मन का काम है सोना या सोचना। जागने में उसकी मृत्यु है। और ध्यान है जागना। इसीलिए मन कहता है- चलें, ध्यान के संबंध में ही सोचें। यह उसकी आत्मरक्षा का अंतिम उपाय है। इससे सावधान होना! सोचने की जगह, देखने पर बदल देना। विचार नहीं, दर्शन-बस, यही मूलभूत सूत्र है। दर्शन बढ़ता है, तो विचार क्षीण हो जाते हैं। साक्षी जागता है, तो स्वप्न विलीन होते हैं।
ध्यान, आता है, तो मन जाता है। मन है द्वार, संसार का।
ध्यान द्वार है, मोक्ष का। मन से जिसे पाया है, ध्यान से वह खो जाता हैै। मन से इसे खोया है, ध्यान में वह मिल जाता है। - ध्यान विधियां, सद्गुरु मां ओशो प्रिया
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