वास्तुशास्त्र में वास्तु, पृथ्वी पर स्थान की व्यवस्था है। यह गतिशील और जीवंत है। यह गतिमान ऊर्जा में निवास करती है। इसे कई नामों से संबोधित किया जाता है, जैसे भूमि पुरूष, वास्तुनाथ और वास्तु पुरूष।
यह भौतिक पदार्थ स्थित ऊर्जा है। जब वास्तु पुरूष चारों मुख्य दिशाओं , उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम की ओर मुख करता है तो उसे जागा हुआ माना जाता है। और जब यह यह कोणीय दिशाओं यानी ईशान, आग्नेय, नैऋृत्य व वायव्य की ओर मुख करता है, तो उसे सोया हुआ माना जाता है।
वास्तु और ज्योतिष का आपस में गहरा संबंध है। वास्तुशास्त्र भारत का अत्यंत प्राचीन शास्त्र है। विज्ञान का जन्म वास्तुशास्त्र के बाद हुआ। हम ज्योतिष को वास्तु के समकालीन मान सकते हैं। किन्तु विद्वानों का मानना है कि ज्योतिष भारत का सबसे प्राचीनतम शास्त्र है किन्तु कुछ बातें हैं जो ज्योतिष में, जो वास्तु से ली गई हैं। यहां हम ज्योतिष विज्ञान और वास्तु विज्ञान पर चर्चा करेंगे।
आज विज्ञान काफी विकसित है। किन्तु वास्तु शास्त्र, ज्योतिष विज्ञान जितना लोकप्रिय नहीं है। कुछ लोग हैं जो वास्तुशास्त्र पर विश्वास नहीं करते। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस शास्त्र के बारे में लोगों को जानकारी कम है। जिन्हें जानकारी है वह जानकारी सही नहीं है। नौसिखिये वास्तुशास्त्रियों ने लोगों को भ्रमित किया है। जिसमें कारण लोगों का वास्तुशास्त्र से भरोसा ही उठ गया है। सच तो यह है कि वास्तुशास्त्र का ज्ञान महासागर की अतल गहराइयों से मोती चुनने के समान कठिन है। वास्तुशास्त्र में कुछ ऐसे ज्ञानी भी हुए हैं जिन्होंने इस कठिन कार्य को करके दिखाया है।
वास्तुशास्त्र और ज्योतिष शास्त्र का आपस में गहरा संबंध है। दोनों का उद्देश्य लोक कल्याण, स्वास्थ्य और जीवन को सही दिशा देना है। किन्तु ज्योतिष केवल भविष्य ही बताता है। ज्योतिष द्वारा भाग्य को बदलना संभव नहीं है। इसलिए वास्तु और ज्योतिष को एक साथ जोडकर देखना उचित नहीं होगा।
ज्योतिष चाहे, वह हस्तरेखा विज्ञान हो, अंक गणित विज्ञान हो, फलित ज्योतिष हो अथवा अन्य कोई भी हो, वह सिर्फ मनुष्य के भाग्य के बारे में ही बता सकते हैं। दुर्भाग्य को सौभाग्य में कैसे बदला जाये, इसका जिक्र नहीं है। हालांकि मनुष्य के दुखों को सुख में बदलने के लिए, अथवा इस उद्देश्य से हवन, पूजा-पाठ, धर्म, जप, तप इत्यादि की सलाह दी गई है, किन्तु ये सारे उपाय कष्ट निवारण के लिए पर्याप्त नहीं कहे जा सकते। इसका लाभ भी हो, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। यदि लाभ होता भी है तो वह अपेक्षित नहीं होता। दूसरी ओर वास्तु शास्त्र है जिसमें मनुष्य को सुखी व समृद्ध बनाने के लिए सारे साधन उपलब्ध हैं।
यह आरोग्य शास्त्र की तरह है। जिस प्रकार नियमों का पालन करके मनुष्य रोग मुक्त हो जाता है। उसी प्रकार वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार भवन निर्माण करके प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सुखी व समृद्ध बना सकता है।
वास्तु के अनुसार निर्मित भवन सुख, शांति व संपन्नता प्रदान करता है। वास्त व विज्ञान का संबंध प्रगाढ है। विज्ञान के कई सिद्धांत वास्तु से लिए गये हैं। हालांकि विज्ञान व वास्तु के संबंधों पर दृष्टि डालना आवश्यक है। विज्ञान सबके लिए ग्राहय क्यों है? वास्तुशास्त्र और विज्ञान के सिद्धांत तर्क संगतता, साध्यता, स्थायित्व, सिद्धांतता, उपयोगिता एवं सर्व ग्राह्नता पर फलित होते हैं। वास्तु शास्त्र में भवन पर सूर्य की किरणों का वही प्रभाव डालने का प्रयास है जो सूर्य की किरणों का इस पृथ्वी पर है। पृथ्वी अपनी धूरी पर पूर्व की ओर और 23.5 डिग्री पर झुकी है। इस कारण उसका उत्तरी भाग, ईशान कोण तथा पूर्वी भाग पूर्व की ओर झुक गया है तथा दक्षिणी भाग, नैऋृत्य कोण तथा पश्चिमी भाग ऊंचा उठ गया है।
भवन निर्माण में इसी सिद्धांत को वास्तु शास्त्र ने अपनाया है। अर्थात भूखंड का ढलान पूर्व, उत्तर एवं ईशान कोण की ओर होना चाहिए। यदि आप इस प्रकार बने मकान में निवास करते हैं तो इसका प्रभाव महसूस कर सकते हैं। आप सुखी और समृद्ध होंगे। ऐसे मकान में रहने वाला व्यक्ति आरोग्य जीवन जीता है। इसके विपरीत यदि भूखण्ड या भवन दोषपूर्ण हैं तो उसे उचित प्रकार से साध्य बनाया जा सकता है। इसके साथ ही पृथ्वी का यह झुकाव शाश्वत है, जो हमें विज्ञान की जानकारी देता है।
वास्तु शास्त्र व विज्ञान के सारे सिद्धांत ब्रह्माण्ड के ग्रहों आदि की चुंबकीय शक्तियों के आधार भूत सिद्धांत पर निर्भर हैं और सारे विश्व में व्याप्त हैं। अत: वास्तुशास्त्र और विज्ञान के सिद्धांत शाश्वत हैं, सत्य हैं, और व्यापक हैं। विश्व में इस पर शोध भी किये जा रहे हैं। भविष्य में निश्चित ही वास्तुशास्त्र, विज्ञान की तरह विकसित होगा जो लोक कल्याण के लिए उपयोगी साबित होगा।
वास्तु की आवश्यकता क्यों?
पहले मानव जंगलों में रहता था। घर न होकर गुफाओं में रहता था। धीरे-धीरे मानव सभ्यता का विकास हुआ और आवश्यकताएं बढती गईं। सरदी, गरमी, जंगली जानवरों, प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए मानव ने रहने का लिए घर बनाना आरम्भ किया। पहले घर घास-फूस, मिट्टी आदि के ही बने होते थे। धीरे-धीरे मानव सभ्यता का विकास होता गया और घर, मजबूत और कृत्रिम सामग्रियों से बनने लगे।
आधुनिक समय में मकानों का निर्माण आधुनिक तकनीक से होने लगा है। सर्वप्रथम हम शारीरिक दृष्टिकोण की बात करते हैं, जिसको ध्यान में रखकर ही सिविल इंजीनियर्स ऐसे भवनों का निर्माण कर रहे हैं जो निवासियों के लिए सुरक्षा प्रदान करने वाला, भौतिक सुख-संपदाओं से संपन्न व दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम होता है।
भवन में सुरक्षा प्रदान करने में वाले कारक:
दरवाजे, खिडकियां, बरामदा
लघु वायु कोशिकाओं युक्त तापरोधी छत, जिसे फाल्स सीलिंग भी कहते हैं।
मोटी दीवारें
खोखली दीवारें
आकाशीय बिजली, बरसात, हिमपात, तूफान से सुरक्षा के लिए-
ताम्र तडित चालक
जलरोधी छत
बरसात के पानी की निकास व्यवस्था
बर्फ के फिसलने के लिए ढालू छत
छत ढकने के लिए मजबूत सामग्री
चोरों से सुरक्षा के लिए मजबूत दीवारें व मजबूत दरवाजे-खिडकियां
इस प्रकार एक आधुनिक मकान में न केवल प्राकृतिक आपदाओं तथा चोरों से सुरक्षा के लिए तकनीक होती है बल्कि ऐसा मकान मनुष्य को शारीरिक सुख भी प्रदान करता है। साथ ही यह खूबसूरत भी होता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से वास्तुशास्त्र की आवश्यकता-
शिशु मां के गर्भ में नौ माह अपार सुख का आनन्द लेता है। जन्म से पहले यह सुख उसके अवचेतन मस्तिष्क पर चिन्हित हो जाता है। जन्म के पश्चात व्यक्ति तापमान नियंत्रण, वातानुकूलन, शांत वातावरण, पौष्टिक, स्वादिष्ट व ताजे भोजन आदि के द्वारा उस परम सुख को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करता है। यह सब सही वायु संचार द्वारा प्राकृतिक रूप में प्राप्त किया जाता है।
मकान का मध्य भाग, जिसे ब्रह्मस्थान भी कहा जाता है, शिशु की कमल नाल की भांति काम करता है। यह मकान को आवश्यक भोजन जैसे गर्मी, रोशनी और हवा प्रदान करता है। साथ ही उसे अनंत अंतरिक्ष से जोडकर उसमें आकाश तत्व को भर देता है।
वास्तु का परिधीय भाग, जो पैशाच स्थान होता है, मनुष्य की त्वचा की तरह कार्य करता है। त्वचा शरीर के तापमान को नियंत्रित रखती है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से वास्तुशास्त्र की आवश्यकता
शरीर, आत्मा के लिए आधारशिला है और उसके शुद्धिकरण की प्रक्रिया में मदद करता है। शरीर, आत्मा का वास्तु है। आत्मा की शुद्धिकरण प्रक्रिया में शरीर आत्मा को सुरक्षा प्रदान करता है। शरीर की रक्षा करना मनुष्य का परम धर्म है। यह पवित्र और शाश्वत आत्मा-परमात्मा से बिछुडे अंश का आवास है।
प्रकृति के अत्याचारों से शरीर की रक्षा हेतु मानव आश्रय स्थल के रूप में वास्तु का निर्माण करता है।
इस प्रकार से वास्तु की आवश्यकता न केवल शारीरिक दृष्टिकोण से ही, बल्कि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी है।
वास्तु पुरूष
वास्तुशास्त्र की तीन अवस्थाएं
वास्तुशास्त्र में वास्तु, पृथ्वी पर स्थान की व्यवस्था है। यह गतिशील और जीवंत है। यह गतिमान ऊर्जा में निवास करती है। इसे कई नामों से संबोधित किया जाता है, जैसे भूमि पुरूष, वास्तुनाथ और वास्तु पुरूष।
यह भौतिक पदार्थ स्थित ऊर्जा है। जब वास्तु पुरूष चारों मुख्य दिशाओं , उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम की ओर मुख करता है तो उसे जागा हुआ माना जाता है। और जब यह यह कोणीय दिशाओं यानी ईशान, आग्नेय, नैऋृत्य व वायव्य की ओर मुख करता है, तो उसे सोया हुआ माना जाता है।
वास्तु पुरूष के बारे में बताया जाता है कि पृथ्वी और आकाश को आतंकित करने वाला कोई असुर पूर्व काल में उत्पन्न हुआ था। उस असुर की विशालता से आतंकित होकर समस्त देवताओं ने क्रुद्ध होकर उस असुर का सिर नीचा करके भूमि में गाड दिया और स्वयं स्वयं देवता वहां खडे रहे। जिस स्थान पर देवता खडे रहे, वह उनका आधिपत्य क्षेत्र माना गया। इस असुर का नाम ब्रह्मा जी ने वास्तु पुरूष रखा तथा इसकी स्थापना की और कहा कि यह पृथ्वी पर पूज्य होंगे। भवन निर्माण तभी सफल होगा जब वास्तु पुरूष का पूर्ण सम्मान करते हुए निर्माण होगा।
किसी भूखण्ड में वास्तु पुरूष की कल्पना एक ऐसे औंधे मुंह लेटे हुए पुरूष के रूप में की गई है, जिसका सिर ईशान कोण (उत्तर-पूर्व), कंधे उत्तर व पूर्व दिशा में, कोहनियां वायव्य कोण व अग्नि कोण में, दोनों पैर मुडे हुए तथा घुटने कोहनियों को छूते हुए पुन: वायव्य व अग्नि कोण में तथा पैर जुडे हुए, तलुवे मिले हुए नैऋृत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में होते हैं। इस कल्पना में वास्तु पुरूष का पेट, वस्ति प्रदेश भूखण्ड के मध्य स्थान में पडेगा, जिसे ब्रह्म स्थान कहते हैं।
किसी भी भूखण्ड में प्रत्येक भाग में वास्तु पुरूष का कोई न कोई अंग अवश्य होता है। वास्तुशास्त्र में वास्तु पुरूष की तीन अवस्थाएं बतायी गई हैं-
1. स्थिर वास्तु
2. चर वास्तु
3. नित्य वास्तु
स्थिर वास्तु
ईशान और नैऋृत्य धुरी पर स्थिति वास्तु पुरूष की स्थायी अवस्था है। वर्ष भर सभी मौसमों में निर्माण कार्यों के लिए यह स्थायी अवस्था है। स्थिर या स्थायी अवस्था में वास्तु पुरूष का सिर ईशान में, दायां हाथ आग्नेय में, पैर नैऋृत्य में और बायां हाथ वायव्य में होता है।
यह घर, मंदिर, गांव आदि के निर्माण तथा उसकी स्थिरता से संबंधित है।
वास्तुशास्त्र पर लिखी गई अधिकांश पुस्तकें केवल स्थिर वास्तु के सिद्धांतों पर ही आधारित हैं।
स्थिर वास्तु के अधिकांश सिद्धांत गर्मियों में सूर्य की प्रखर किरणों से बचने के लिए बनाये गये हैं।
चर वास्तु
चर वास्तु में वास्तु पुरूष एक दिशा में पूरे तीन महीने तक रहता है। फिर दक्षिणावर्त घूमता है।
चर वास्तु में वास्तु पुरूष की स्थिति व मौसम में परिवर्तन का परस्पर गहरा संबंध है।
बदलते मौसम के अनुसार प्रकृति की शक्तियों की मात्रा में भी कमी वेशी होती है। यही वास्तु पुरूष के शरीर के साथ घटित होता है।
मार्च के द्वितीयार्द्ध से लेकर जून के प्रथमार्द्ध तक उत्तर दिशा में सबसे शुभ रहता है।
उत्तर दिशा में स्थित दरवाजे, खिडकियां, रोशनदान बगैरह खुले रखने चाहिए। इससे वास्तु का पूर्ण लाभ मिल पाता है।
मार्च अर्थात द्वितीयार्द्ध से लेकर जून अर्थात प्रथमार्द्ध तक कोई भी शुभ काम करते समय अपना मुख उत्तर दिशा में रखें।
पूर्व दिशा वर्षा ऋतु के समय यानी जून से सितम्बर तक सबसे शुभ रहती है।
इन महीनों के दौरान पूर्व दिशा में स्थित दरवाजे, खिडकियां, रोशनदान बगैरह खुले रखने से वास्तुशास्त्र का लाभ मिल पाता है।
दक्षिण दिशा शीत ऋतु के आरम्भ में यानी सितम्बर से दिसम्बर तक शुभ है।
इन महीनों के दौरान दक्षिण दिशा में स्थित दरवाजे, खिडकियां आदि खुला रखें।
पश्चिम दिशा दिसम्बर से मार्च तक अत्यंत शुभ रहती है।
इन महीनों में इस दिशा के सभी दरवाजे, खिडकियां बगैरह खुले रखें ताकि शीतकाल में अधिकाधिक सौर ऊर्जा मिल सके।
अस्थाई शिविर, तंबू, पंडाल, सर्कस का टेंट, मेले के पंडाल, धार्मिक कार्यक्रम के लिए बनाये जाने वाले पंडाल, रामलीला मंच, नाटक हेतु अस्थाई निर्माण आदि हेतु चर वास्तु का उपयोग होता है। इस प्रकार का निर्माण अधिकतक तीन महीनों की अवधि के लिए किया जाता है।
नित्य वास्तु
इसका संबंध वास्तु की दैनिक परिक्रमा से है।
वास्तु पुरूष की दृष्टि हर तीन घंटे बाद बदलती है। वह दिन में 360 डिग्री की परिक्रमा पूरी करता है।
आठ दिशाओं में से हर दिशा में तीन घंटे तक रहता हे।
मानव मस्तिष्क और शरीर भी प्रतिदिन चक्रीय परिवर्तन रखते हैं।
सोने के समय मस्तिष्क की ऊर्जा और सर्तकता अपनी न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाती है।
सूर्यमुखी का फूल सदैव सूर्य अभिमुख होता है, लेकिन मनुष्य को सदैव इसके विपरीत आचरण करना चाहिए।
दोपहर के समय उत्तर अभिमुख होना चाहिए। क्योंकि सूर्य इस समय दक्षिण दिशा में होता है।
सोते समय सिर दक्षिण दिशा में रखें, क्योंकि मध्य रात्रि के समय सूर्य उत्तर दिशा में होता है।
पूरे साल वास्तु पुरूष की दृष्टि बदलती है
मार्च, अप्रैल, मई, जून में वास्तु पुरूष की दृष्टि उत्तर की ओर होती है।
जून, जुलाई, अगस्त, सितम्बर में वास्तु पुरूष की दृष्टि पूर्व की ओर होती है।
सितम्बर, अक्तूबर, नवम्बर, दिसम्बर में वास्तु पुरूष दृष्टि दक्षिण की ओर रहती है।
दिसम्बर, जनवरी, फरवरी, मार्च में वास्तु पुरूष की दृष्टि पश्चिम की ओर रहती है.
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