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बच्चों के जीवन में पिता की भूमिका | Role of father in children's lives

Vimla Sharma

Updated: Oct 10, 2021



च्चों में अन्य व्यस्क सदस्यों की अपेक्षा पिता के मार्ग दर्शन की अधिक आवश्यकता होती है। पिता-पुत्र स्नेह संबंधों के प्रारम्भ से लेकर विकास तक की संभावना इसी दायित्व के कुशल निर्वाह से जुड़ी है। निःसंकोच सामान्य से सामान्य बातों में पथ-प्रदर्शन एवं जिज्ञासाओं का समाधान देने वाला पिता अपनी संतान के व्यक्तित्व को कुशल माली की भांति अंकुरित करता है। जिससे वह बड़ा होकर एक विशाल वृक्ष का रूप ले सकें और दूसरों को ठंडी छाया और मधुर फल दे सके।

 

कोई भी परिवार माता-पिता के बगैर अधूरा है। माता-पिता दोनों ही एक परिवार को अपने खून पसीने से सींचते हैं। मां के प्यार, त्याग पर अनेकों कविताएं और कहानियां लिखी जा चुकी हैं और आगे भी लिखी जाती रहेंगी, क्योंकि किसी भी जीव-जन्तु या मनुष्य के जीवन में ईश्वर के बाद मां का स्थान आता है। मां और बच्चों के प्रेम पर जितना भी कहा जाये वह कम ही है। किन्तु क्या हम इस सब में एक पिता की भूमिका को नकार सकते हैं। किसी भी संतान के जीवन में मां-पिता दोनों का प्रेम, स्नेह आवश्यक है। किसी भी संतान के लिए मां के साथ पिता का महत्व भी कम नहीं है।



मां के प्रेम को ममत्व और पिता के प्रेम को स्नेह कहा जाता है। स्नेह, प्रेम और विवेक का समन्वय कह सकते हैं। यदि हम मां के प्यार की पिता से तुलना करें तो वह बहुत ही कठोर और अनुशासक प्रवृति के होते हैं। बच्चा मां के बहुत ही नजदीक होता है। वह उनसे लगभग सभी बातें शेयर करता है किन्तु जब कभी पिता से कुछ कहने या मांगने की इच्छा होती है तो मन में अजीब से डर होता है, क्योंकि पिता से वह नजदीकी रिश्ता नहीं बन पाता जो मां से होता है। मां यदि मार भी दे तो कुछ देर बाद सब कुछ भूल जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मां प्यार में कोमलता, दिव्यता होती है। मां का प्यार एक शीतल नदी की जलधारा की भांति होता है। इसके विपरीत पिता का स्नेह जीवन रूपी नदी में एक बांध का कार्य करता है। जो बच्चों के जीवन को सुरक्षित और कल्याणकारी बनाता है। बच्चे पिता के साये में स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं।

मां के बाद संतान पर सर्वाधिक प्रभाव पिता का पड़ता है। पिता का स्थान भी बच्चों के जीवन में एक प्रकार से अद्वितीय ही है। उनका जीवन एक खुली किताब के समान है, जिसका प्रत्येक पृष्ठ खुला हुआ रहता है। वह दिनभर घर से बाहर रहकर परिवार के भरण-पोषण के लिए न जाने कितने समझौते करते हैं। जिन बच्चों के जीवन में पिता नहीं होते, वह अनाथों की भांति अपना जीवन जीते हैं। मां, प्यार तो दे पाती है किन्तु सुरक्षा, मार्ग दर्शन नहीं दे पाती, जो बच्चों को एक पिता से मिलता है। परिवार की आर्थिक स्थिति चाहे कितनी बेहतर क्यों न हो, किन्तु वह पिता के स्थान की भरपाई नहीं कर पाती। क्योंकि एक बेटे में परिवार के अच्छे संस्कार, अच्छा व्यक्तित्व, अच्छे विचार, अच्छी आदतें और स्वभाव पिता से ही आते हैं। वैसे तो बेटियां बेटों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं बल्कि बेहतर ही साबित हुई हैं, लेकिन बेटियों पर मां का प्रभाव अधिक देखने को मिलता है और बेटों पर पिता।



बेटों पर पिता के व्यक्तित्व, विचार, आदत और स्वभाव का अनिवार्य रूप से प्रभाव पड़ता है। जिसे आध्यात्मिक भाषा में संस्कार तथा वैज्ञानिक भाषा में मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के नाम से संबोधित किया जा सकता है। इस सिद्धांत के बहुत कम अपवाद मिलते हैं, कि जब पुत्र, पिता के समान न कर कुछ अलग करता हो। सामान्यतः संतान अपने पिता की ही अनुकृति सिद्ध होती है।

भावनात्मक रूप से बच्चे मां के अधिक नजदीक होते हैं। मां के संस्कारों और आदतों का प्रभाव तो पड़ेगा ही, फिर भी पिता के प्रभाव को टाला नहीं जा सकता। एक चुम्बकीय शक्ति की तरह संतान पिता की ओर खिंचती है तथा उन गुणों को विकसित करती रहती है।



पिता के संरक्षण में पुत्र निरंतर कुछ न कुछ सीखता है। यही कारण है कि पिता के ऊपर कुछ विशेष दायित्व आ जाते हैं। जिनका उन्हें निर्वाह अवश्य करना चाहिए। इन दायित्वों की उपेक्षा संतान के लिए भी और स्वयं पिता के लिए भी कभी-कभी घातक सिद्ध हो सकती है। आज के समय में पिता-पुत्रें के संबंधों में जो कटुता उत्पन्न होती जा रही है। बच्चोें को पिता की रोक-टोक, सख्ती अच्छी नहीं लगती। यही कारण है कि पिता और पुत्र के रिश्तों में दूरियां बढ़ रही हैं। इसका दूसरा कारण है कि पिता समय के अभाव और नौकरी या व्यवसाय के कारण बच्चों को उपयुक्त समय नहीं दे पाते। जिससे परिवार की पूरी जिम्मेदारी मां पर आ जाती है। जो कि बच्चों के भविष्य के लिए सही नहीं है।



यदि पुत्र या बेटा दुर्गुणी है या बुरी संगत में पड़ गया है तो इसके दोषी रूप से पिता ही है। बालक को गीली मिट्टी कहा जाता है, जिसे मनचाहा आकार बचपन में ही दिया जा सकता है। जिस प्रकार कुम्हार की पत्नी मिट्टी को रोंधकर मुलायम बनाती है, वह एक मां की भूमिका है। मिट्टी को चाक पर चढ़ाकर एक सुंदर बर्तन का आकार कुम्हार रूपी पिता ही दे सकता है। एक मां अपने ममत्व और प्रेम के रस से बालक के व्यक्तित्व को गीला रखती है और पिता कुम्हार की तरह उसको मनचाहा रूप देता है। यहां कुम्हार की जरा सी चूक खिलौने या बर्तन का आकार बदल देती है। यदि बर्तन या खिलौने का आकार खराब होता है तो कुम्हार यानि पिता ही दोषी है।

इसलिए एक पिता के लिए जितना आवश्यक, पैसा कमाना है उससे कहीं अधिक आवश्यक बच्चों की ओर ध्यान देना भी पिता का ही कर्तव्य है। आप यह कहकर अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ सकते कि हम काम के सिलसिले में सारा दिन घर से बाहर रहते हैं इसलिए बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी एक मां की ही है। माता-पिता दोनों की भूमिका बच्चों के जीवन में अहम है। इसलिए एक अच्छे और आदर्श पिता का कर्तव्य है कि कितना भी व्यस्त हों किन्तु संतान के प्रति कर्तव्यों की उपेक्षा भूलकर भी न करें। भारतीय संस्कृति में पिता को मुखिया और संरक्षक कहा गया है। अपने बच्चों का मार्गदर्शन करना मुखिया का कर्तव्य है। कितने दुख की बात है कि जिस क्षेत्र में पुरुष को प्रधान बनाया है, वह उसे उपेक्षणीय समझ लिया जाता है।

बच्चों में अन्य व्यस्क सदस्यों की अपेक्षा पिता के मार्ग दर्शन की अधिक आवश्यकता होती है। पिता-पुत्र स्नेह संबंधों के प्रारम्भ से लेकर विकास तक की संभावना इसी दायित्व के कुशल निर्वाह से जुड़ी है। निःसंकोच सामान्य से सामान्य बातों में पथ-प्रदर्शन एवं जिज्ञासाओं का समाधान देने वाला पिता अपनी संतान के व्यक्तित्व को कुशल माली की भांति अंकुरित करता है। जिससे वह बड़ा होकर एक विशाल वृक्ष का रूप ले सकें और दूसरों को ठंडी छाया और मधुर फल दे सके।


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