माता-पिता का कार्य एक बगिया के माली की तरह है, जिस प्रकार वह पौधों की देखभाल करता है और आवश्यकतानुसार पौधों की कटिंग करता है, खाद पानी देता है, तो वही पेड-पौधे बडे होकर फूलों और फलों से लद जाते हैं किन्तु यदि माली के ठीक से पौधों की देखभाल न करने पर, पेड-पौधे सही से ग्रोथ नहीं कर पाते जिससे उनके फल या फूल उत्तम किस्म के नहीं होते। माता-पिता को भी अपना कर्तव्य माली की ही भांति निभाना चाहिए, गलती करने पर, बच्चों को डांटना, समझाना चाहिए और खाद-पानी की तरह बच्चों में अच्छे संस्कार रोपित करने चाहिए। जिससे बच्चे बडे होकर एक स्वस्थ समाज की रचना कर सकें। बच्चे ही देश का भविष्य हैं।
कविता और शांति में गहरी दोस्ती थी। दोनों के घर पास-पास ही थे। शांति के पास दो बेटे थे, पर कविता निःसंतान थी किन्तु अपने इस दुख को उसने कभी भी उजागर नहीं होने दिया। उसकी सूनी आंखें ही सब कह देती थीं।
शांति ने जब तीसरे बेटे को जन्म दिया तो कविता को बिना बताये, यह कहते हुए ‘भगवान को साक्षी मानकर तुम्हें अपना बच्चा गोद दे रही हूं। संभालो इसे तुम ही। मेरे पास तो पहले ही दो बेटे हैं, भगवान इनकी आयु लंबी करे।’ कविता की गोद में डाल दिया।
कविता से कुछ कहते नहीं बना, वह अवाक् रह गई।
ईश्वर को धन्यवाद दिया और बच्चे को लेकर खुशी-खुशी अपने घर आ गई। उसे मन मांगी मुराद मिल गई थी। लेकिन कविता का पति चंद्रभान, यह सब देखकर बहुत हैरान हुआ। कविता को समझाते हुए बोला, यह सही नहीं है। यदि तुम्हें बच्चा लेना ही था तो मुझसे बात की होती। हम सोच-समझकर निर्णय लेते।
नवजात बच्चे का मुंह चूमते हुए कविता बोली, इसमें क्या बुराई है ? कितना प्यारा है मुन्ना।
‘‘बात तो ठीक है, पर हमें ऐसा बच्चा लेना चाहिए जिसे हम अपना कहने का अधिकार रखें।’’
‘‘कैसी बात करते हो जी!
पति ने कविता को सारी बातें समझाते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारी सहेली का बच्चा है। वह हमारे घर के पास ही रहती है। वह बच्चे पर अपना अधिकार जतलाएंगे। हमें ऐसा बच्चा गोद लेना चाहिए था जो केवल हमारा ही कहलाए। मैंने ठीक कहा न?’’
‘‘और एक बात कविता! जब तक तो तुम प्यार करोगी तब तक तो ठीक है। पर जब किसी बात पर डांटा जायेगा तो इसके परिवार वालों को अखरेगा।’’
‘‘जो होगा, देखा जाएगा। बच्चे को छाती से चिपकाते हुए कविता ने कहा। कविता कुछ भी सुनना नहीं चाहती थी।
कविता की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। सारा समय उसकी ही देखभाल में ही लगी रहती। लेकिन जब भी शांति के घर जब कोई रिश्तेदार आता तो वह बच्चे को दिखाने के लिए बुलवा लेती। कविता को यह सब अच्छा नहीं लगता, पर मन मसोसकर रह जाती।
जब शांति की मां ने सुना तो उन्हें यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई। वह अपनी बेटी को समझाने लगी।
शांति की मां बोली, ‘बेटे जैसी सौगात भी भला कोई बांटता है। उन्हें भगवान ने निःसंतान रखा है और तूने ईश्वर के न्याय के विरुद्ध निर्णय लेकर ठीक काम नहीं किया।
‘‘मां, तुम मुझे इतनी मूर्ख क्यों मझती हो? मैंने तो यह सब बहुत ही सोच-समझकर किया है।’’
‘‘कैसे?
मैं भी तो सुनूं!’’ मां ने चौंकते हुए पूछा।
तब शांति ने अपनी सब प्लानिंग मां को बताई कि उसने अपने बच्चा कविता क्यों दिया?
शांति मां से बोली, ‘मां, जिस स्थान पर मैंने घर बनाने की जगह ली है, ठीक उसके साथ ही लगता हुआ प्लाट कविता का भी है। फिर वह प्लाट हो या अन्य प्रापर्टी, वह जिसको बेटा मानेगी मिलेगा तो उसे ही। मैंने तो यही सोचकर बच्चे को उसकी गोदी में डाला है।’
‘‘अच्छा! फिर तो ठीक है। पर एक बात का ध्यान रखना बच्चे को यह बात याद दिलाते रहना कि उसके असली माता-पिता तुम ही हो।
‘‘वहीं तो करती हूं। इसलिए दिन में एक बार मुन्ने को अपने घर ले ही आती हूं।’’
समय धीरे-धीरे बीतने लगा।
एक दिन कविता गोद लिए बेटे को गोदी में बैठा कर दूध पिला रही थी कि इतने में शांति का बेटा आया और बोला, ‘‘मौसी! मेरे भाई को दे दो। मां ने मंगवाया है। क्योंकि नानी आई हैं और मुन्ने से मिलना चाहती हैं।’’
‘‘मेरे’’ यह शब्द कविता को बहुत अखरा। पर कुछ बोली नहीं।
मन ही मन गुस्से को पीते हुए कविता बोली, ‘बेटे, अभी तो उसको नहलाना है। इसलिए थोड़े समय बाद रुककर ही ले जाना। यह कह वह मुन्ने को नहलाने लगी, पर मुन्ना मचलने लगा। वह शायद सोना चाहता था।
कविता ने दुलार के साथ उसे हल्की सी चपत लगा दी।
यह देखते ही शांति के बेटे ने लपकर मुन्ने को उठा लिया और लेकर घर की ओर भाग गया। कविता आवाज देती ही रह गई, पर उसने एक न सुनी।
दो घंटे बीत जाने पर भी मुन्ना नहीं आया, तो वह परेशान हो गई।
वह उसे स्वयं लेने गई। किन्तु कमरे के दरवाजे के बाहर ही उसके कदम रूक गये।
शांति की मां ने समझाने या धमकाने के बदले, तेवरों के साथ कविता से बोली।
‘यह भी कोई समय बच्चे को नहलाने का। ठीक समय पर ही सारे काम कर लेने चाहिए। एक बात और, बच्चा तो प्यार से ही काबू आता है बेटी, मार से नहीं।’
अब ऐसी ही कोई न कोई घटना रोज होने लगीं।
ऐसे ही वातावरण में मुन्ना दो वर्ष का हो गया।
एक एक दिन ऐसा आया जब मुन्ना ने तोतली भाषा में कविता को मां कहने से इंकार कर दिया।
वह कविता की चोटी खींचते हुए बोला, ‘‘तू मेरी मां नहीं।’’
बच्चे के इस शब्द ने कविता को अंदर तक हिलाकर रख दिया।
एक दिन अचानक जब चंद्रभान जब ऑफिस से लौटे तो देखा कि पालना खाली है। उसका सारा सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा है।
कविता की आंखें रो-रोकर लाल हैं।
चंद्रभान को देखते ही बोली ‘वे लोग बच्चे को ले गए हैं।‘
पति को इस बात का तनिक भी अचम्भा या दुख नहीं था बल्कि प्रसन्नता हुई।
चंद्रभान को इस प्रकार प्रसन्न देखकर वह तिलमिला गई।
पति ने बड़े प्यार से समझाया कि यह तो एक दिन होना ही था। रोने या दुख होने से क्या लाभ?
चंद्रभान ने सोचा था कि कुछ ही दिनों में कविता उस घटना को भूलकर सामान्य स्थिति में आ जाएगी, लेकिन दिन-प्रतिदिन कविता की सेहत खराब होती चली जा रही थी। वह बहुत कमजोर हो गई थी। कविता की हालत देखकर चंद्रभान भी परेशान रहने लगे।
स्त्री की जाति ही ऐसी है कि सभी प्रकार के तीर-ताने सह लेगी, पर निःसंतान होने का ताना सह पाना उसके लिए कठिन है।
एक दिन चंद्रभान ने पूछ ही लिया कि ऐसा कब तक चलेगा?
कविता ने उत्तर दिया कि ‘जब तक दम है।‘
‘‘ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी।’’
चंद्रभान, नम आंखों के साथ पर कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।
कुछ समय तक वह ऐसे ही बैठा रहा।
कविता उठकर उसके पास आई और उसका माथा सहलाने लगी।
उससे चंद्रभान का दर्द भी छिपा नहीं था। उसने सोचा कि क्या संतान की जरूरत केवल इसे ही है, उसको नहीं?
वह निढाल क्यों है? उसे हिम्मत से काम लेना चाहिए। यदि ऐसे ही चलता रहा तो कहीं ऐसा न हो कि उसकी गृहस्थी ही डांवा-डोल हो जाए।
यह सोचकर वह उठकर रसोई में गई। दो प्याले चाय के बना लाई और पति को उठाया।
कविता को सहज स्वाभाविक देखकर चंद्रभान को प्रसन्नता हुई और पूछा, ‘‘एक बात मानोगी?’’
‘‘क्या?’’
‘‘मैं दफ्तर से एक माह की छुट्टी ले लेता हूं। कहीं घूमने चलते हैं।’’
‘‘कहां?’’
‘‘किसी पर्वतीय स्थल पर।’’
‘‘जाना ही है तो क्यों न किसी तीर्थ स्थान पर ही चलें। क्या पता, ईश्वर हमारी इच्छा पूरी कर ही दे।’’
‘‘चंद्रभान ने हंसते हूए कहा, ‘‘देखो कविता! अब तो ईश्वर ने भी सोच लिया है कि तुम्हारी इच्छा पूरी कर ही दी जाए। इसलिए तीर्थ यात्रा से आने के बाद किसी अनाथालय से एक बच्चा लेगें।
वह बच्चा केवल हमारा ही होगा। केवल हमारा और किसी का नहीं।
चंद्रभान बोला, ‘अच्छा तो यह बताओ कि तुम बेटी लेना चाहोगी या बेटा?’
‘‘दोनों ही।’’
‘‘सच!’’
‘‘और नहीं तो क्या।’’ कविता ने मंद-मंद मुस्कराते हुए कहा।
अपने होने वाले बच्चों की मंगल कामना के लिए दोनों तीर्थ यात्रा को चल पड़े।
कविता की इच्छा थी कि भारत के सभी प्रमुख स्थलों की यात्रा पर जाए, पर पति नहीं माना। पति बोले, अभी तो केवल मां वैष्णो देवी के दर्शन के लिए ही चलते हैं। वैसे हमें विश्वास है कि हमें ‘‘मां वैष्णो’’ पर विश्वास भी तो है।
कविता ने चंद्र की बात मान ली और जरूरी सामान बांधा और चल पड़े मां के दर्शनों के लिए।
भावी संतान के विषय में सोचकर दोनों अति प्रसन्न थे।
गाड़ी पूरी रफ्तार से दौड रही थी।
कविता खिड़की के बाहर झांक रही थी।
रास्ते के सभी दृश्य पूछे छूटते जा रहे थे।
चंद्रभान कुछ कहने ही वाले थे कि एक जोरदार झटका लगा, और ट्रेन में ही हाहाकार मच गया। गाडी के कुछ डिब्बे पटरी से उतर चुके थे।
एक पल के लिए उनको समझ में नहीं आया कि क्या हुआ?
यह तो एक भयंकर रेल दुर्घटना थी। पीछे वाले डिब्बे आगे वाले डिब्बों पर चढ़ गये और कुछ नीचे उतर गए।
गाड़ी की दुर्घटना का कारण शायद कोई पशु था, जो चलती गाड़ी के आगे आ गया था।
इस दुर्घटना में सैंकड़ों की मृत्यु हो गई और घायलों की संख्या तो शायद इससे भी अधिक होगी। एक डिब्बे का हाल तो बहुत ही विदारक था। उसी डिब्बे में एक विधवा स्त्री तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ यात्रा कर रही थी।
वह बच्चों की बुआ थी।
एक छोटी बच्ची थी, जिसका नाम था मुन्नी, उसकी उम्र करीब छः माह होगी।
दो बेटे थे।
सभी उस विधवा औरत के साथ थे।
औरत तो उस दुर्घटना का शिकार हो गई पर बच्चों का बाल भी बांका नहीं हुआ, जबकि उस डिब्बे के सभी यात्रियों के चोटें आईं थीं।
मृत महिला के पास बैठकर रोते बच्चों को देखकर सभी का मन पसीज गया और सभी बच्चों को दिलासा दे रहे थे।
देखते ही देखते वहां भीड़ एकत्र हो गई।
कुछ लोग तो आस-पास के गांवों में ही रहने वाले थे कुछ बच्चे भी थे, जो कुछ समय पहले पटरियों के पास खेल रहे थे।
पिछले स्टेशन पर इस दुर्घटना की सूचना पहुंच चुकी थी।
शीघ्र ही कुछ डॉक्टर और नर्सें पहुंच गए।
एक अन्य रेल साथ की पटरी पर आकर रुक गई।
जिनको चोट नहीं लगी थी वे लोग उस गाड़ी में बैठने लगे।
चन्द्रभान ने कविता को इशारा किया कि वे भी चलकर अपनी सीट संभालें।
पर वह तो अटैची पर ही बैठी न जाने किन विचारों में खोई थी।
पति ने कविता को समझाया कि उसे शीघ्र चलकर अपनी जगह बनानी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि फिर सारी यात्रा खड़े होकर ही करनी पड़े।
पर उसने उत्तर दिया कि अब वह आगे कहीं भी नहीं जाएगी।
वह वापस घर जाने वाली गाड़ी में बैठेगी।
‘‘क्यों, डर गई हो इस दुर्घटना से?
घर ही जाना है तो ‘‘मां के दर्शन’’ कैसे करोगी?’’
‘‘मेरी यात्रा तो मां ने राह में ही पूरी कर दी।’’
‘‘क्या बहकी-बहकी बातें कर रही हो? मेरी तो समझ में ही कुछ नहीं आ रहा?
उठो, देर हो रही है।’’ उसके कंधे को झकझोरते हुए कहा।
‘‘आपकी समझ में कुछ नहीं आ रहा तो बैठो, मैं समझाती हूं।
कविता बोली, ‘सभी को गाड़ी में अपनी-अपनी सीट संभालने पड़ी है। इन बेसहारा बच्चों के बारे में सोचने की शायद किसी के पास समय नहीं है।’
‘‘वे भला ये सब क्यों सोचने लगे?
देखती नहीं, सभी के पास बच्चे हैं।’’
‘‘अच्छा! यह बात है तो जिनके पास नहीं हैं उनको ही सोचना चाहिए।’’
‘‘तुम इन सबको अपने साथ ले जाना चाहती हो?’’
‘‘चाहती तो हूं, यदि आप मानें?’’
‘‘मेरे मानने या मानने से क्या होता है। पालने तो तुमको ही हैं।’’
‘‘केवल मेरे पालन-पोषण से बात नहीं बनती। इनकी जरूरत होगी माता और पिता के स्नेह की भी।
पर आप डरें नहीं। अब मैं आपकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं करूंगी।
आपके समझाने पर भी जो भूल की, उसका घाव अभी तक भरा नहीं है।’’
थोड़ा रुककर झिझकते हुए वह फिर बोली, ‘‘सुनो जी!
‘कहो’, चंद्रभान बोला।
कविता, ‘वैसे भी तो अनाथालय में अपनी आय का कुछ भाग देते हैं वह सब बंद कर देंगे। तुम एक बच्चा इन तीनों में से ले लो।’
चंद्रभान को उस नन्हीं मुन्नी पर दया आ रही थी। इसलिए कविता ने कहा ‘वह इस बच्ची को गोद ले लेते हैं।’
कविता का मन तो तीनों बच्चों को गोद लेने का था। पर इतना बड़ा निर्णय वह पति की सहमति के बिना नहीं लेना चाहती थी।
उसने आगे बढ़कर मुन्नी को गोद में ले लिया।
इस विषय में चंद्रभान ने स्टेशन मास्टर और पुलिस इंस्पेक्टर से बात कर ली, और कविता और मुन्नी को लेकर गाड़ी में बैठ गया।
गाड़ी चलने में कुछ समय था।
कविता ने चंद्रभान से कहा, ‘‘आप जाकर स्टेशन मास्टर से पूछ आइये कि बाकी के बच्चे किस स्थान पर भेजने हैं?
‘मैं ऐसा इसलिए कही रहूं कि भविष्य में इनको मिलने में सुविधा होगी। एक पैकेट बिस्कुट और बेसन की थोड़ी सी बर्फी लेते जाओ। अपनी बेटी के भाइयों के लिए।’’
उपरोक्त शब्द कविता के मुख से बडी ही मुश्किल से निकल रहे थे।
यह कहते हुए उसकी आंखें डबडबा आई थीं।
कविता सोच में डूबी थी कि चंद्रभान को गये पंद्रह-बीस मिनट हो गये पर मालूम नहीं वह अभी तक क्यों नहीं आये?
यही सब सोचकर कविता परेशान भी थी।
गाड़ी ने भी सीटी बजा दी थी और धीरे-धीरे सरकने भी लगी।
कविता का हृदय विशाल है। वह दयावान होने के साथ सभी धर्मों का सम्मान करती है। इसलिए उसने मुन्नी की जाति का कोई ध्यान नहीं किया।
वह मानती थी कि बच्चे तो स्वयं ईश्वर का अंश हैं, फिर जात-पात का क्या करना?
वह हर पल उठते-बैठते ‘‘ओम’’ का जाप करती थी।
दिन हो रात, काम में लगी रहती पर, लगन तो उसकी ‘‘ओम’’ नाम में ही है।
वह ख्यालों में डूबी थी तभी चन्द्र भागते हुए आए।
साथ में मुन्नी के दोनों भाई भी हैं।
बच्चों सहित गाड़ी में बैठ जाने के बाद चन्द्रभान ने कविता को बताया कि ‘‘जब पुलिस कर्मचारी इन दोनों को जीप में बैठाकर ले जाने लगे तो ये दोनों चीख-चीखकर रोने लगे।
खाने का सामान तो बच्चों ने छुआ तक नहीं।
मुझसे चिपट गए।
रो-रोकर इनका बुरा हाल था।
बोलते जा रहे थे कि हमारी मुन्नी को लौटा दो। नहीं तो हमें भी साथ ले चलो।’’
‘मैंने सोचा कि मुन्नी को तुम वापिस नहीं करोगी। घर से चलते वक्त तुमने यह भी तो कहा था कि तुम्हारी बेटी और बेटा दोनों ही चाहिए। ऐसे में बताओ मैं क्या करता?’
‘यह सोचकर इन दोनों को ही साथ ले आया। ‘
‘संभालो, अपने बेटों को। तुम भी क्या याद करोगी?’
यह परिवार रात को घर पहुंचा।
प्रातःकाल हवा के झोंके की तरह बात फैल गई।
चंद्रभान बच्चे लाये हैं। एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन।
पिछले दस वर्षों से कविता मुहल्ले के बच्चों को तीज-त्योहार और उनके जन्मदिवस पर कोई-न-कोई उपहार दे देती थी।
अब उसका भी मन था कि मुहल्ले के लोग उसके बच्चों के सिर पर प्यार का हाथ फेरें।
नवीन और जतिन दोनों बेटों का नाम था।
आयु पाठशाला जाने योग्य थी।
कविता और चंद्रभान ने सोचा कि पहले घर में हवन कराया जाये और मेहमानों को कुछ नाश्ता-पानी भी कराया जाये। इसके बाद ही बच्चों की शिक्षा का शुभारम्भ करें।
अतः हवन वाले दिन इनके घर के आस-पास के सभी लोग आये।
सभी बच्चों के लिए उपहार लाये।
मुन्नी तो बहुत छोटी थी, अतः उसे इन बातों का तनिक भी ज्ञान नहीं था।
नवीन और जतिन यह देखकर प्रसन्न थे।
चंद्रभान ने बच्ची को थोड़ा रोता देखा तो पत्नी पर थोड़ा गुस्सा करते हुए कहा, ‘‘देखती नहीं बच्ची रो रही है। जाओ, उसे संभालों। मेहमानों को मैं स्वयं देख लूंगा।’’
कविता को पति यह डांट भली लगी थी।
वह बच्ची को गोद में लिए हुए ही दुगुने उत्साह से सारा काम देखने लगी।
किसी ने हंसी में बोला, ‘‘देखो तो! बच्ची को गोद में लिए हुए ही कितनी फुर्ती से काम कर रही है जैसे बरसों को अनुभव हो।’’
कविता ने सुना तो हंसते हुए ही उत्तर दिया कि यह मेरा पहला बच्चा तो है नहीं। पहले भी तो दो का पालन-पोषण किया है।
उसका इशारा नवीन और जतिन की ओर था।
इस समय कविता की सहेली शांति, गांव गई हुई थी।
वापिस आई तो प्रसन्न होना तो दूर, वह उल्टे जल-भुन ही गई।
बोली, ‘तीन-तीन बच्चों को अपनाकर उसने कोई भला काम नहीं किया।‘
‘कुछ तो अक्ल से काम लिया होता। इस मंहगाई के जमाने में एक बच्चे को अपनाना कितना कठिन है। फिर तुम तो तीन को ले आई?’ साथ में ही यह ताना भी दिया कि किसी प्रकार पल भी गए तो इनकी शादी ब्याह के समय, जाति का पता नहीं होने के कारण अड़चनें भी आ सकती हैं। क्या मालूम कौन सा गोत्र है इन सबका?’’
कविता को शांति की बातों का दुख तो बहुत हुआ पर मन ही मन कुढ़ कर रह गई।
बस इतना ही कहा, ‘ बहिन! यह सब बातें, बच्चों के सामने मत करो। मैंने तो बड़ी मुश्किल से अपनी गृहस्थी संजोई है।‘
शांति बोली, ‘न बहन! मुझे क्या पड़ी है ये सब बातें तेरे बच्चों के मुंह पर कहने की। मैं तो तेरे भले की खातिर कह रही थी कि तीर्थ यात्रा का संकल्प लेकर घर से चली थी, जिसे पूरा किये बिना वापिस आ गई। यह अच्छा नहीं किया।’
इस पर कविता ने बहुत ही सुलझा हुआ उत्तर देते हुए कहा, ‘‘बहिन! मैं तो बच्चों की इच्छा लेकर ही तीर्थ यात्रा पर निकली थी। लौटकर किसी भी अनाथालय से बच्चे लेने ही थे। इन मासूमों का दुख हमसे देखा न गया। इसलिए इन्हें अपना लिया।
कविता बोली, ‘फिर मैं तो एक बात मानती हूं कि कोई पानी को लोटा लेकर सूर्य को जल चढ़ा रहा हो, पास ही कोई प्यासा पानी की चाह लिए खड़ा हो तो तुम ही बताओ कि सूर्य को जल चढ़ाना ठीक रहेगा या प्यासे को पानी देना।’’
यह सुनकर शांति उल्टे पांव घर लौट गई।
चंद्रभान के घर में खर्चों की बढ़ोतरी होना स्वाभाविक ही था।
फिर भी चंद्रभान ने बच्चों के उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखते हुए जीवन-बीमा करवा दिया। पाठशाला में छुट्टियां हो चुकी थीं।
बच्चों का अधिक समय घर के सामने वाले पार्क में बीतता।
मुन्नी को साथ लेकर नवीन और जतिन भी वहां खेलने जाते।
शांति के बच्चे कविता के बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करते।
शांति ने कभी बच्चों को समझाने या अच्छी शिक्षा देने की कोशिश नहीं की।
शांति के बच्चे नवीन और जतिन को ‘यतीम’ कहकर बुलाते।
देखा-देखी अन्य बच्चे भी उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे।
चंद्रभान को जब इस बात का पता चला तो गुस्से से उसका खून खौल उठा।
वह बोला, ‘‘मैं अभी जाकर शांति के पति से बात करता हूं।
पर कविता ने पति को ऐसा करने से मना कर दिया और कहा कि शिकायत करने से बात बढ़ जायेगी।’’
नवीन और जतिन आखिर बच्चे ही तो थे।
वह घर के सामने पार्क में खेलने जाते। पर वे शीघ्र ही घर वापिस आ जाते।
एक दिन कविता ने बच्चों से पूछ ही लिया कि वे बिना खेले ही क्यों वापिस आ जाते हो?
नवीन ने अपनी परेशानी को छिपाते हुए कहा, ‘‘मां! तुमने भी तो खाना बनाना होता है। मुन्नी तंग करती होगी। इसलिए आ जाते हैं।’’
पर जतिन ने सारी बात बता दी कि बच्चे बहुत दुखी करते हैं इसीलिए वे खेल नहीं पाते।
कविता ने सोचा कि पाठशाला खुल जाने पर सब ठीक हो जाएगा।
पर हुआ इसके उल्टा ही।
मुहल्ले की सभी हरकतें पाठशाला में भी दुहराई जाने लगीं।
वहां पर भी शांति के बेटों का ही दबदबा था।
नवीन-जतिन उनकी हरकतों से बुरी तरह तंग आ गये थे।
शांति के साथ ही प्रिंसीपल के बच्चे भी नवीन-जतिन को तंग करते थे।
कविता से रहा न गया।
एक दिन पाठशाला में जाकर निवेदन के स्वर में प्रिंसीपल सब बातें की।
उसे जब अपने बेटे की करतूतों का पता चला तो बहुत परेशान हुआ
उन्होंने बच्चों को समझाया कि ऐसा करने से पिता की बदनामी होगी, इसलिए उसे ऐसा नहीं करना चाहिए।
पर नवीन-जतिन के लिए कुछ नहीं बदला।
एक दिन पाठशाला में छुट्टी हुई तो सभी बच्चों में काफी झगड़ा हुआ। नवीन समझदार बच्चा था वह छोटी-छोटी बातों की परवाह ही नहीं करता था। पर जतिन को मार खाते देख, वह रह न सका। इसलिए बीच में कूद पड़ा।
वह अपने छोटे भाई को पिटते कैसे देख पाता?
पर अन्य बच्चे चुपचाप तमाशा देखते रहे।
कविता के दोनों बच्चों में न जाने इतना जोश कैसे आ गया?
दोनों ने ही पलट कर शांति के बच्चों दबोच लिया और जोर-जोर से घूंसों की बौछार करने लगे। ऐसा लग रहा था कि जैसे जन्म-जन्म के बदले लिये जा रहे थे।
अन्याय के ऊपर न्याय हावी हो चुका था।
किसी की हिम्मत न थी कि आगे बढ़कर बीच-बचाव करे।
शांति के बच्चे किसी तरह अपनी जान बचाकर भागे।
उन्हें अचम्भा हो रहा था कि आज यतीमों में इतना साहस कहां से आ गया?
नवीन जतिन घर आए।
उनके चेहरों की रंगत पीली पड़ी हुई थी।
यह सब देखकर कविता सहम गई।
दूसरे दिन कविता और चन्द्रभान पाठशाला गए।
कविता की गोदी में मुन्नी थी।
प्रिंसीपल को मालूम था कि इस दम्पति ने नवीन-जतिन को गोद लिया है।
उन्हें मुन्नी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
जिज्ञासा दूर करने के लिए पूछ ही लिया, ‘‘यह बच्ची तो आपकी---’’
आगे वह कुछ न बोलते।
कविता समझ गई कि क्या पूछना चाहते हैं।
कविता बोली, ‘भाई साहब! हमने दो नहीं, तीन-तीन बच्चे--- ’’ अब बात काटने की बारी थी प्रिंसीपल की इसलिए झट से बोले, बस-बस, मैं समझ गया।’
‘‘लो भाई! आज तो करिश्मे पर करिश्मा होता जा रहा है। आधे-अधूरे वाक्यों की भी सबको समझ आने लगी है।’’ इस पर सभी खिलखिलाकर हंसने लगे थे।
अब वास्तविक विषय की बात आई।
चंद्रभान ने खुलकर, प्रिंसीपल से सभी बातें कीं कि किस प्रकार बच्चों की बुआजी की मृत्यु रेल दुर्घटना में हो गई थी और रोते-बिलखते बच्चों को अपना लिया।
प्रिंसीपल ने इन दम्पति की सराहना की।
उन्होंने उनके इस नेक काम की सराहना की।
चंद्रभान ने प्रिंसीपल को सब कुछ बता दिया किस प्रकार मुहल्ले और स्कूल के बच्चे सताते हैं।
चंद्रभान बोला, यदि समाज भी इस कार्य की सराहना करता तो अच्छा था पर उनको प्रतिपल यह सुनाया जाए कि तुम यतीम हो। तुम यतीम हो! तो कैसे होगा यह सब!’’
कविता ने कहा था कि कम से कम पाठशाला में तो इनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए।
प्रिंसीपल ने चंद्रभान को, दूसरे दिन अपने घर बुलाया।
चंद्रभान दफ्तर से उठकर सीधा उसके घर गया। फिर उसके बाद बाजार से होकर घर आया।
पिता को आया देख नवीन-जतिन उसकी ओर लपके और हाथ से लिफ़ाफे पकड़ लिए।
पर मुन्नी को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं थी। उसे तो पिता मिल गए बस, इतना काफी था। वह लपककर चंद्रभान से लिपट गई।
उसने बच्ची को गोद में लिया नवीन-जतिन तो फल और मिठाई खाने में मग्न थे।
चंद्रभान ने मजाक में कविता को कहा, देखा तो! किसी ने सच ही कहा है कि बेटों की बजाय बेटियां ही माता-पिता से अधिक मोह होता है।
‘‘आज तो आप बहुत ही प्रसन्न हैं। क्यों क्या बात है?’’
‘‘सुनोगी तो तुम भी प्रसन्न हो जाओगी।’’
‘‘पर बात तो पता चले?’’
‘‘चंद्रभान ने बताया कि वह प्रिंसीपल के घर गया था। उन्होंने तो सभी उलझने सुलझा दीं।
‘‘कैसे?’’
‘‘वह कहते हैं कि हमारी कंपनी का मालिक उनका दोस्त है। मेरे विषय में उससे बात की थी। हमारी बदली किसी दूसरे शहर में कर दी गई है। नई जगह पर हमारे बच्चों के विषय में जानकारी किसी को नहीं होगी। एक बात और! मालूम है हमारे वेतन में भी कितनी बढ़ोतरी हो गई है?’’
‘‘कितनी?’’
‘‘तीन सौ।’’
‘‘सच?’’
‘‘और नहीं क्या मैं झूठ बोल रहा हूं।
और भी सुनो। रहने को मकान और बच्चों की शिक्षा और डॉक्टरी की सहायता अलग से।’’
कविता की खुशी का ठिकान नहीं था। वह दोनों बेटों को अपनी बाजू में दबाकर, उन्हें प्यार करने लगी। यह सब देखकर, पहले तो मुन्नी हैरान हुई कि शायद उसके दुलार का भाग भी मां उसके भाइयों पर उड़ेलना चाहती है। और जब उसने देखा तो मां तो अपने लाडलों में मस्त है तो पिता की ओर देखकर मुंह बिसूरने लगी। उसे अपनी बच्ची पर दया मिश्रित अपार स्नेह उमड़ आया और झट से उसे सीने से लगा लिया।
बच्ची ने लंबी सांस ली ऐसा लगा कि जैसे कई जन्मों की बिछुड़ी बेटी अपने स्नेही पिता से मिली है।
चंद्रभान अपने परिवार के साथ दूसरे शहर में शिफ्ट हो गये।
समय अपनी गति से बढने लगा।
दोनों परिवार के बच्चे बढे होने लगे।
कविता और चंद्रभान ने अपना पूरा जीवन बच्चों की अच्छी परवरिश और उनकी शिक्षा में लगा दिया। बच्चों ने अपनी कडी मेहनत और माता-पिता के आर्शीवाद से अच्छा-खासा बिजनेस खडा कर लिया। चंद्रभान के परिवार की गिनती शहर के जाने-माने परिवार में की जाने लगी। मकान से अब वह एक आलीशान बंगले में रहने लगे।
वहीं दूसरी ओर शांति ने अपनी प्रवृति नहीं बदली।
छल-कपट और द्वेष के साथ बच्चों की परवरिश हुई। शांति के बच्चे पहले बाहर के लोगों से झगडते थे। बडे होकर आपस में ही लडने-झगडने लगे।
शांति की परवरिश ने बच्चों को नकारा और गैर जिम्मेदार बना दिया।
एक दिन ऐसा आया कि बच्चों और बहुओं ने शांति को उनके ही घर से निकाल दिया। शांति अब अपने पति के साथ गरीबी और अभाव की जिंदगी जीने को मजबूर थे।
वहीं चन्द्रभान ने अपनी नौकरी का समय ईमानदारी से निभाया और रिटायर हो चुके थे। उनके दोनों बेटे भी अपने काम में अच्छा मुनाफा कमा रहे थे। बेटों की शादी भी उन्होंने अनाथाश्रम की बेटियों की थी। दोनों बहुएं बडी ही संस्कारी और समझदार थीं।
दोनों की बहुएं बडे प्रेम से मिलकर रहती थीं।
एक बेटी थी उसकी शादी हो कर चुके थे।
पति-पत्नी का समय अच्छी प्रकार बीत रहा था। एक दिन पत्नी कविता ने पति से कहा, ‘‘सुनो जी! जवानी के दिनों में तीर्थ-यात्रा का संकल्प लिया था अब मन भी है और समय भी है तो क्यों न उसे पूरा किया जाए।’’
चंद्रभान ने प्रसन्नचित हो पत्नी की बात मान ली और दोनों अपने पोतों के साथ तीर्थयात्रा पर चले गये।
एक दिन बूढ़ी स्त्री आकर जतिन की पत्नी मीना से कहने लगी, ‘‘बेटी, सुना है आपका मकान किराये के लिए खाली है?
सिर छिपाने के लिए हमें एक कमरा चाहिए। बड़ी मेहरबानी होगी।’’
‘‘नहीं मां जी, मकान किराए पर नहीं देना है। इसे अपने रहने के हिसाब से ही बनाया है।’’
‘‘नहीं बेटी! वह जो पीछे वाला कमरा है न! शायद नौकर के लिए ही लगता है। नौकर तो आपके पास है नहीं हमें ही दे दो।’’
‘‘मां जी! आपने ठीक समझा। वह कमरा तो नौकर के लिए ही है, परन्तु उसे वह घर छोटा पड़ता था, इसलिए उसे अलग घर ले दिया है। वैसे यह कमरा खाली ही रहता है पर मालूम नहीं, यह किराए पर उठाना है कि नहीं।
फिर मीना बोली, ‘आप बैठिए, मैं अपनी दीदी (जेठानी) को बुलाती हूं, वही आपको बताएंगी।
‘‘नवीन की पत्नी आशिमा ने बड़े सम्मान से उससे बात की।
आशिमा बोली, मांजी! किराए पर तो हमें घर नहीं देना। वैसे आपका जब तक कहीं प्रबंध नहीं होता, तब तक आप इधर रह सकती हैं।
सायंकाल वह स्त्री थोड़ा सा सामान लेकर वह स्त्री अपने पति के साथ आ गई।
इस घर में उसे अपार सुख का आभास हुआ।
यहां आकर उसने यह भी जाना कि कितने स्नेह से दोनों बहुएं एक साथ रह रही हैं।
उधर उनकी बहुएं हैं जो एक पल भी ठीक से मिलकर नहीं बैठीं। ऐसे में वे इन बूढ़े-बूढी को क्या पूछेंगी?
बूढ़ी औरत को इस प्रकार बड़बड़ाते देख, पति ने उसे डांटते हुए कहा, ‘‘चुपकर जाओ। कितनी बार तुमको समझाया था कि बच्चों में फूट मत डालो। यदि तुम यह ढंग न अपनाती तो आज यह दिन देखने को न मिलता।
धोबी का कुत्ता घर का घाट का जैसी स्थिति बन गई है।
क्या से क्या हो गया? समय रहते सचेत न हुईं। अब दूसरों का सुख देखकर परेशान क्यों होती हो? बहुएं तो हमारी भी बुरी नहीं थीं।’’
दूसरे दिन दोपहर को कोरियर आया और बड़ा सा लिफाफा दोनों बहुओं को दे गया। उन्होंने लिफाफा खोला, उसमें कुछ फोटो और एक लेटर था जिसमें उनके सास ससुर के यात्रा के सुंदर फोटो थीं। फोटो सचमुच बड़े ही सुंदर थे। सब प्रसन्नता की मुद्रा में थे जैसे संसार भर का सारा सुख-चैन, ईश्वर ने उनकी झोली में डाल दिया हो। बच्चे भी हंसती हुई मुद्रा में थे।
आशिमा वह चित्र वृद्ध दंपति को दिखाने लगी, ‘‘देखो मां जी! यह चित्र हमारे सास-ससुर जी के हैं। सास जी ने गोदी में जो बच्चा है वह मेरा और दूसरा देवरानी जी का है। मेरी शादी को तीन बरस हो गए थे किन्तु संतान नहीं थी, इसलिए मां जी ने मन्नत मानी थी कि बच्चा हो जाए तो उसे तीर्थ यात्रा पर साथ ले जाएंगे। मेरा मुन्ना अब एक वर्ष का हो गया है।’’ आशिमा ने यह सब बातें एक सांस में कह दीं।
बूढ़ी औरत ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘तो क्या तुम्हारी सास एक साल के मुन्ने को भी साथ ले गईं?’’
‘‘और क्या? वह तो अपने पोते-पोतियों पर प्राण न्यौछावर करती हैं। बहुत भली हैं हमारी मां जी! हमारी ननद की शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी उसकी शादी हो गई।
और पढ़ने का विचार था उसका। तीन माह का छोटा बेटा है उसका।
मां जी, तो कहती हैं कि बच्चा एक वर्ष का हो जाए तो उसे अपने पास ही रख लेंगे, जिससे मुन्नी अपनी शिक्षा पूरी कर सके।’’
‘‘मुन्नी? यह मुन्नी कौन है?’’ औरत ने चौंक कर पूछा।
आशिमा ने बताया कि उनकी ननद का नाम मुन्नी है और चित्रें वाला लिफाफा उसकी ओर बढ़ा दिया।
उस बूढ़ी औरत ने वे चित्र देखे। देखते ही उसक चेहरा उतर गया।
आशिमा ने फोटो अपने हाथ में लीं और अपने कमरे में आ गई। और उसे यह भी पता चल गया था कि वह एक सप्ताह बाद वे लोग लौटकर आ रहे हैं।
औरत ने अपने पति से कहा कि अब यह कमरा छोड़ना ही पड़ेगा।
पति बेचारा कैसे न मानता? वह तो उसी दिन से उसके इशारों पर नाचने लगा था जिस दिन से वह उसके घर आई थी।
दूसरे दिन प्रातः सब सोकर उठे तो देखा कि वृद्ध कमरा छोड़कर जा चुके हैं।
इस घटना के ठीक दो दिन बाद सुबह-सवेरे कविता और चंद्रभान घर आ गए। उनके साथ बेटी-दामाद और उनका बच्चा भी था। उनको आया देख सबको प्रसन्नता हुई पर अचम्भा भी।
बच्चों ने वैसे कुछ पूछा नहीं पर मन ही मन सोचा तो अवश्य होगा कि इतनी जल्दी लौट आने का कारण क्या हो सकता है?
दोनो बेटे काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे पर पिता ने उनसे कहा कि आज काम पर न जाएं क्योंकि उन्हें कुछ जरूरी बातें करनी हैं।
मम्मी-पापा खुश थे। भगवान ने यह दिन भी दिखाया। यात्रा पर जाने से पहले उन्होंने दोनों बेटों की ताबीज पोतों के गले में तथा मुन्नी का उसके बच्चों को पहना दिया था।
रास्ते में ही बच्चों ने ताबीज को दांतों से चबा दिया। जिससे उसका तांबे का पत्र उतर गया। बडी बहू को इस बात की जानकारी थी। उस पर कुछ रहस्यात्मक संकेत हैं। उनकी लिपि तो देवनागरी है, पर भाषा है स्थानीय बोलचाल की। कविता ने दूसरे बच्चे के ताबीज को निकालकर खोला। पति-पत्नी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। ताबीज़ वाले पुर्जे पर इन बच्चों के जन्मदाता की जानकारी थी। तीसरी ताबीज में जो मुन्नी के गले में हैं, उसमें भी अवश्य कुछ न कुछ तो होगा ही, यही सोचकर उनको भी साथ ले आए।
पहली बार तीर्थ यात्रा पर निकले थे तो संतान मिली। दूसरी बार ऐसी उलझन सुलझी जिसकी इच्छा वर्षों से सभी को थी।
कविता ने आंखें बंद कर दोनों हाथ जोड़े। उस अज्ञात शक्ति को लाख-लाख धन्यवाद किया।
आज हमारी उम्र भर की कमाई फली। इस फल को हम अकेले ही बटोरना नहीं चाहते। इस पर उनका भी अधिकार है, जिन्होंने यह बेल लगाई। उस बेल को सींचकर हमने बड़ा किया और आज पता चला कि उस बेल को बीजने वाला किसान भगवान कौन है।
कविता ने अपनी बहुओं को बताया कि वे उसे ‘मातृत्व आश्रम’ के बाबा जी थे- जिन्होंने शादी में उनका कन्यादान किया था। (क्योंकि आशा-मीना भी अनाथ थीं) वहीं इन बच्चों के यानी उनके दोनों बेटों और मुन्नी के जन्मदाता हैं।
वास्तव में बाबा जी एक स्वंतत्रता सेनानी थे। उनकों अंग्रेजों ने काले पानी की सजा दी थी। उनके परिवार में दो नन्हें बेटे और एक नवजात पंद्रह दिन की बच्ची थी। पत्नी, पति के जेल जाने का दुख न सह न सकी और उसकी मृत्यु हो गई।
बच्चों की एक विधवा बुआ थी। जिससे नेक दिल भाई की बेसहारा संतान का दुख न देखा गया। उनको वह अपने घर ला रही थी कि रास्ते में एक एक्सीटेंट के दौरान सब कुछ खत्म हो गया, बुआ की दुर्घटना में मृत्यु हो गयी।
मुन्नी के सास-ससुर उस बाबा को एक महान पुरुष मानते थे, जिन्होंने देश की स्वतंत्र कराने में पूरा सहयोग दिया और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे सैंकड़ों बेसहारा बच्चों को सही संरक्षण देने लगे थे।
जीवन में आज का दिन चंद्रभान, पत्नी कविता और उनके बच्चों के लिए विशेष महत्व रखता है। सब बहुत प्रसन्न हैं।
उधर उस शुभ समाचार की सूचना बाबाजी को भी मिल चुकी है। इसलिए उनके विशेष स्वागत के लिए ‘‘मातृत्व आश्रम’ को विशेष रूप से सजाया जा रहा है। यह काम बाबा ने स्वयं नहीं किया। बल्कि उन समस्त बच्चों ने किया जिनको बाबा जी ने भरपूर संरक्षण दिया था और अच्छा नागरिक बनाया था।
बाबा के ये बच्चे समाज के सभी वर्गों के अंग बने।
उनमें देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी।
ये बच्चे देश को अखण्ड स्वरूप देने वाले बनें क्योंकि खण्डता का नतीजा भी वे सब देख और भुगत चुके थे। नववर्ष की वह सुहावनी बेला, जब चन्द्रभान और पत्नी कविता, अपने बच्चों को लेकर आश्रम आ पहुंचे और सभी के साथ मिलकर एक उत्सव का आयोजन किया। यह दिन चन्द्रभान-कविता और उनके परिवार की खुशियों को दुगुना कर गया।
माता-पिता का कार्य एक बगिया के माली की तरह है, जिस प्रकार वह पौधों की देखभाल करता है और आवश्यकतानुसार पौधों की कटिंग करता है, खाद पानी देता है, तो वही पेड-पौधे बडे होकर फूलों और फलों से लद जाते हैं किन्तु यदि माली के ठीक से पौधों की देखभाल न करने पर, पेड-पौधे सही से ग्रोथ नहीं कर पाते जिससे उनके फल या फूल उत्तम किस्म के नहीं होते। माता-पिता को भी अपना कर्तव्य माली की ही भांति निभाना चाहिए, गलती करने पर, बच्चों को डांटना, समझाना चाहिए और खाद-पानी की तरह बच्चों में अच्छे संस्कार रोपित करने चाहिए। जिससे बच्चे बडे होकर एक स्वस्थ समाज की रचना कर सकें। बच्चे ही देश का भविष्य हैं।
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