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Vimla Sharma

कर्तव्‍यों से बडे अधिकार?। rights greater than duties?

Updated: Apr 17, 2022




हम जिस समाज में रह रहे हैं उसका स्तर लगातार गिरता जा रहा है। समाज का कोई भी वर्ग अपना धर्म या फर्ज नहीं निभा रहा। इसलिए सभी ओर अराजकता और हिंसा का माहैल है। कोई भी किसी की सुनना नहीं चाहता। देश हित और समाज के हितों से ऊपर अपने स्वार्थों को रखा जा रहा है। सभी एक-दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाना चाहते हैं। कर्तव्यों से अधिक अधिकारों की चिंता है। उसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। यही वजह है कि स्वार्थी तत्व समाज को तोड़ने का कार्य आसानी से कर पा रहे हैं।


 


आज के हालातों को देखते हुए बचपन की एक कहानी याद आती है। जंगल में एक बहेलिया आया, वह व्यवसायिक शिकारी था इसलिए उसे अपनी दुकान पर बेचने के लिए तीतर, बटैर न जाने क्या-क्या चाहिए था। भारी संख्या में ये पक्षी उसे मिलना आसान नहीं था इसलिए उसे एक तरकीब सूझी। उसने एक खुले स्थान पर बहुत सा दाना डाल दिया। साथ ही सभी पक्षियों को पकड़ने के लिए जाल भी छिपा दिया। दाना डालते ही आसपास पक्षी इकट्ठा होने लगे। वह यह भूल गये कि कोई भी चीज मुफ्त में नहीं मिलती। हर चीज की कीमत चुकानी होती है। यह नियम है। यह प्रकृति का नियम है। वह यह भी भूल गये कि इस जंगल में जहां सभी एक दूसरे को खाते हैं, प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला है। जैसे शेर शाकाहारी नहीं है वह हिरन आदि को खाकर ही जीवित रहता है, हिरन हरी घास आदि खाते हैं। इस प्रकार जंगल का जीवन बिना किसी अवरोध के चलता है। वहां पक्षियों को दाना कौन डालेगा? यदि किसी व्‍यक्ति ने दाना डाला है तो वह सिर्फ अपने उद्देश्‍य की पूति के लिए।



किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए डालेगा?



कुछ पक्षी समझदार भी थे जिन्होंने उन्हें समझाने का भरपूर प्रयास किया किन्तु दानों का लालच उन्हें रोक नहीं पाया। जैसे ही पक्षियों ने दाना चुनना आरम्भ किया और पक्षियों की संख्या बढ़ी, शिकारी ने जाल दिया जिसमें काफी पक्षी फंस गये। शिकारी बहुत खुश हुआ क्योंकि जो वह चाहता था वह उसे मिल गया था।


वह सभी पक्षियों को एक साथ नहीं मार सकता था। ग्राहकों की आवश्यकता के अनुसार ही पक्षियों को मारना था तब तक पक्षियों का जिंदा रहना भी आवश्यक था इसलिए वह पिंजरें में ही उन्हें दाना भी डाल रहा था। अब सभी पक्षी पछता रहे थे, कि हमें नहीं चाहिए दाना, बस हमें छोड़ दो। लेकिन इसका कोई फायदा नहीं। सही समय पर सही निर्णय लेना आवश्यक है। जिंदगी में पुर्नरावृति नहीं होती। जब एक बार निर्णय रूपी तीर कमान से निकल गया तो तीर का रोका नहीं जा सकता।





यह तो थी एक कहानी, जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। इस प्रकार की कहानियां कुछ दशक पहले बच्चों को स्कूलों में पढ़ाई जाती थीं। नैतिक शिक्षा दी जाती थी। हर कहानी के अंत में उद्देश्य बताया और समझाया जाता था। लेकिन न तो ऐसी शिक्षा ही रही और नही शिक्षा पद्धति। सभी धर्म सिखाना चाहते है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि धर्म क्या है यह किसी को नहीं पता।



हम जिस समाज में रह रहे हैं उसका स्तर लगातार गिरता जा रहा है। चारों ओर अराजकता फैली हुई है। धर्म के नाम पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। इंसानियत सबसे बडा धर्म है किन्‍तु यह आज बहुत ही कम देखने को मिलती है। समाज का कोई भी वर्ग अपना धर्म या फर्ज नहीं निभा रहा। सभी एक-दूसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाना चाहते हैं। कर्तव्यों से अधिक अधिकारों की चिंता है। उसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं।



अधिकतर फिल्में अराजकता पर आधारित हैं, उनका उद्देश्य केवल अधिक से अधिक पैसा कमाना होता है, इसलिए दो दिन बाद सभी फिल्म स्टार और फिल्मकार को कोई याद नहीं रख पाता। इसलिए 50 से 70के दशक की फिल्मों को आज भी याद किया जाता है। गाने आज भी सुने जाते हैं, जो दिल को सुकून के साथ प्रेरणा भी देते हैं।



शिक्षा की बात करें तो विद्यालयों में आधुनिक शिक्षा के नाम पर पश्चिमी कल्चर में भावी पीढ़ी को धकेला जा रहा है। अपने स्‍वार्थ के लिए इतिहास को तोडा मरोडा जा रहा है। अपने आस-पास क्या तकनीकि बदलाव आ रहे हैं, यह सब जानना और सीखना बेहद आवश्यक है किन्तु अपने रीति-रिवाजों और संस्कृति को रूढिवादी मानना तो सही नहीं है। बच्चों को यह तक नहीं बताया जाता कि भारतीय संस्कृति सबसे पुरानी और सबसे महान है। जिन विषयों पर वैज्ञानिक शोध या अविष्कार कर रहे हैं, वह कार्य हमारे महाभारत और रामायण काल में पहले ही की जा चुके हैं। दक्षिण भारत की ओर जायें तो वहां भारतीय संस्कृति की महानता के अनेकों प्रमाण आज भी मिल जायेंगे।





जिसे हम हिन्‍दू या सनातन धर्म के नाम से जानते हैं वह कोई धर्म नहीं, बल्कि वैज्ञानिकता के आधार पर एक जीवन शैली है। जो प्रकृति की संरक्षक है। जिसमें योग, ध्‍यान आदि सभी शामिल हैं। लेकिन नहीं, यदि यह सब भावी पीढ़ी को सिखाया ही नहीं जाता, जिसका दुष्प्रभाव हमारे खान-पान, पहनावे, और विचारों पर भी पड़ रहा। अधिकतर युवा पीढ़ी अपनी राह से भटक रही है। उनके विचारों को कमजोर और संक्रमित किया जा रहा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया गया तो स्वार्थी तत्व अपना व्यवसाय नहीं चला पायेंगे। उनके उद्देश्य पूरे नहीं होंगे। किन्तु हर बुराई का अंत होता है। सभी को समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों को पहले रखना चाहिए। घोर अंधकार में छोटी सी रोशनी भी अपनी ओर आकर्षित भी करती है। हमें उस प्रकाश पुंज को पहचानना चाहिए। जो हमें इस अंधकार के माहौल से निकाल सकें और समाज के विचारों को नई दिशा दे सकें। इसके लिए हमें जागरूक रहने के साथ-साथ स्वार्थी तत्वों से सावधान भी रहना चाहिए।


धन्यवाद

- मेरी वृंदा




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