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Vimla Sharma

पुरूष भी हो रहे हैं मानसिक प्रताडना के शिकार | Men are also becoming victims of mental torture

Updated: Oct 9, 2021



काफी समय में भारतीय संस्थाएं समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए कार्य कर रही है। महिलाओं में शिक्षा की स्थिति में भी काफी सुधार हुआ है। महिलाएं सशक्त भी हुई है। आज महिलाएं हर क्षेत्र में अपनी भूमिका अदा कर रही हैं। यह समाज के लिए अच्छा संकेत है। किन्तु समाज का दूसरा पहलू यह भी कि पुरुषों में मानसिक प्रताड़ना बढ़ रही है। समाज में बढ़ती रेप की घटनाओं ने समाज में पुरुषों की छवि को काफी क्षति पहुंचायी है। जिससे पुरुष निरंतर मानसिक प्रताड़ना और लैंगिक असमानता के शिकार हो रहे हैं।


 

आज जिस प्रकार समाज में रेप की घटनाएं हो रही हैं इस प्रकार की घटनाओं ने समाज में पुरुषों की छवि को काफी क्षति पहुंचाई है। सदियों से नारी से प्रताडि़त होती रही है, आज जिन विकट परिस्थितियों से नारी जाति को रूबरू होना पड़ रहा है, उसके लिए पुरुष समाज ही जिम्मेदार है। लेकिन क्या यह शत-प्रतिशत सत्य है? सभी पुरुषों की सोच एकसमान है? यह भी सही नहीं है। जिस प्रकार यह बात जितनी सत्य है उतनी ही सत्य यह भी है कि सभी बच्चे भी, उनकी मानसिकता भी एक समान नहीं होती। लेकिन फिर भी दोषी पूरे पुरुष समाज को ही माना जाता है। छवि पूरे समाज की खराब हो रही है।



इस बात को बिल्कुल भी झुठलाया नहीं जा सकता कि हमारे परिवेश में लड़कियां सदैव असमानता का शिकार होती रही हैं। उन्हें प्रताडि़त किया जाता रहा है। महिलाओं की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए उन्हें संरक्षण और अधिक अधिकार व अवसर भी दिये जा रहे हैं। यह आवश्यक भी है। किन्तु इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कहीं हम,दूसरे पहलू को नजरअंदाज कर, नई समस्या तो खड़ी नहीं कर रहे हैं। जिस प्रकार पुरुषों में आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं उन आंकड़ों से यह अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। एक आंकलन के अनुसार भारत में 12 प्रतिशत छात्र मनोवैज्ञानिक समस्याओं से जूझ रहे हैं।


निश्चित रूप से इनमें लड़कों की संख्या अधिक है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 के खुदकुशी के आंकड़ों के अनुसार हाल ही वर्षों में आत्महत्या करने वालों में महिलाओं से अधिक पुरुषों की संख्या है। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि कभी जो परिस्थितियां महिलाओं की थी वह अब पुरुषों की जिंदगी का हिस्सा बनती जा रही हैं। यह स्थिति केवल छात्रों की ही नहीं, समाज में पुरूष वर्ग की है। कई केसों में कानून का दुप्रयोग किया जाता है। समाज की मानसिकता ऐसी है कि पुरूषों की बात को सुना ही नहीं जाता। समाज का उनके प्रति रवैया भी बदल जाता है। जिससे वह मानसिक रूप से प्रताडित होते हैं।

सच्चाई यह है कि हमारे भारतीय परिवेश में ही नहीं, विश्व जगत की सोच ही यही है कि पुरुषों को मजबूत समझा जाता है। एक कहावत भी है कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’।



पुरुषों की भी मनोदशा ऐसी है कि वह अपनी तकलीफों को कहने में झिझक महसूस करते हैं। बहुत कम पुरुष ही ऐसे हैं जो अपनी भावनाओं पर काबू नहीं कर पाते या खुलकर रो नहीं पाते, अधिकतर पुरुष अपनी तकलीफों को छिपाते ही नजर आते हैं। वह अपनी समस्याओं पर घर में खुलकर बात नहीं कर पाते। अधिकतर मामलों में पुरुषों पर या बेटों पर घर की जिम्मेदारी होती है। इसके लिए उनका आर्थिक रूप से सक्षम भी होना आवश्यक है। यही सोच कर घर में बेटों की परवरिश की जाती है और आर्थिक रूप से सक्षम होने की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है। छोटे बच्चे सभी मन से कोमल होते हैं फिर वह चाहे बेटा हो या फिर बेटी। बेटों का कोमल मन, इस बोझ को ढोते-ढोते टूट जाता है। दिल से संबंधित मामले महिलाओं से अधिक पुरुषों में अधिक हैं।

लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को बचपन से ही उन्हें मजबूत माना जाता है या फिर उन्हें समय-समय पर मजबूत बनने की सलाह दी जाती है। उनकी भावनाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। यही वजह है कि वह अपनी तकलीफ नहीं बता पाते, यदि बताने की कोशिश भी करते हैं तो उनकी बातों को गंभीरता ने नहीं लिया जाता। सभी पुरुष या बेटे शारीरिक रूप से बेटियों से मजबूत होते हैं किन्तु यह आवश्यक नहीं कि वह भावानात्मक रूप से भी उतने ही मजबूत हों। हम बेटों की भावनाओं की ओर ध्यान नहीं दे पाते और उनपर दवाब बढ़ता जाता है और वह मानसिक रूप से परेशान रहने लगते हैं और धीरे-धीरे वह असमानता का शिकार बनते चले जाते हैं। वह स्वयं को अकेला पाते हैं और बेटों में भटकन की शुरूआत यहां से ही होती है और उनमें नारी जाति के प्रति प्रतिशोध या क्रोध की भावना का अंकुर पनपना आरम्भ हो जाता है।



यह असामानता का दवाब लगातार समाज में लड़कों पर निरंतर बढ़ रहा है क्योंकि महिला जागरूकता अभियान, महिला शिक्षा, महिला सशक्तिकरण जैसे अभियानों से समाज में महिलाओं की स्थिति पहले के मुकाबले मजबूत हो रही है किन्तु पुरुषों की स्थिति से सभी अनभिज्ञ हैं। महिलाओं का आज हर क्षेत्र में दबदबा है। महिलाएं आज समाज के हर क्षेत्र धरती से लेकर अंतरिक्ष तक में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं, जिसका दवाब पुरुषों पर लगातार बढ़ रहा है। पुरुषों को तथा समाज को इस ओर ध्यान देना होगा। उनके प्रति भी अपनी सोच को बदलना आवश्यक है। बेटों को झूठे अहंकार भरी सोच से निकल कर खुले दिल से अपने पंख फैलाने होंगे। अपनी योग्यता दर्ज करानी होगी। अपनी मनोदशा, अपने विचार शेयर करने होंगे। एक स्वस्थ समाज में दोनों स्त्री हो या पुरुष दोनों की ही स्थिति बेहतर होनी आवश्यक है।

जितना समय, संस्कार हम बेटियों को देने में लगाते हैं उतना ही ध्यान हमें बेटों पर देना भी आवश्यक है। हम यह नहीं कह रहे कि बेटों को परिवार में प्यार-दुलार नहीं मिल रहा, यह कहना गलत होगा। भारतीय समाज में आरम्भ से ही बेटों अधिक अवसर दिये गये हैं, किन्तु संस्कार, नसीहतें, आदि बेटियों की झोली में अधिक आयी हैं। जिसके चलते बेटों में यह गलत भावना बैठा दी गयी है कि वह श्रेष्ठ हैं, उनके लिए संस्कारी या सहनशील होना आवश्यक नहीं। यही सोच आज समाज में समस्याएं पैदा कर रही है। जब इस सोच पर ठेस पहुंचती है तो उनके अहं को ठेस पहुंचती है। जो बाद में चल कर महिलाओं को प्रति क्रोध का रूप ले लेती है। प्यार-दुलार संस्कार, अनुशासन यह सब, बेटों और बेटियों दोनों के लिए अति आवश्यक है। श्रेष्ठता को लिंग के आधार पर आंकना गलत है। यह मानसिकता बेटों में परिवार के द्वारा ही बदली जा सकती है।



यह माता-पिता का अहम रोल है। हमें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। लैंगिक समानता समाज के लिए बहुत ही आवश्यक है। राजस्थान में एक जगह है जहां इस विषय पर कार्य भी किया जा रहा है। इस ओर अभियान भी चलाया जा रहा है कि जिससे यह समझने की कोशिश की जा रही है कि ऐसे कौन से विषय हैं जिससे लड़के खुलकर अपनी बात नहीं कह पाते और कुंठा में जीते हैं, उनमें महिलाओं के प्रति इतना क्रोध क्यों है, वह किन मानसिक प्रताड्ना का शिकार हो रहे हैं जिन परिस्थितियों से हारकर आत्महत्या जैसा कदम उठाने से भी नहीं चूकते। लड़का होना भी आज उनके लिए एक तरह से बोझ बनता जा रहा है। ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर कार्य करना आवश्यक है।

बेटों को इस तरह नजरअंदाज करने की बजाय उनमें अच्छे संस्कार डालने चाहिए। महिलाओं का सम्मान करना सिखाना चाहिए। बेबाकी से अपनी बात कहने से झिझकना नहीं चाहिए। बेटे और बेटियों की परवरिश बिना भेदभाव के समान रूप से करनी चाहिए। बेटियों को सरकार की ओर से आगे बढ़ने के लिए भरपूर अवसर दिये जा रहे हैं, उन्हें विशेषाधिकार भी दिए गये हैं। जो आवश्यक भी हैं किन्तु घर-परिवार में दोनों को समान ही अवसर देने चाहिए और बेटों इतना अवसर तो देना ही चाहिए कि वह माता-पिता और समाज पर विश्वास कर अपनी बात कह सकें और एक अच्छा जीवन जी सकें। जिससे एक स्वस्थ समाज की नींव रखी जा सके।



नये विषयों की चर्चा करे तो ऐसे कई केस सामने आये हैं जिनमें वह स्वयं को बेकसूर साबित नहीं कर पाते और बेकसूर होते हुए भी वह किसी जघन्य साजिश का शिकार हो जाते हैं। कहीं उन्हें नाजायज बात न मानने पर रेप जैसे केसों में फंसा कर ब्लेकमेल तक किया जाता है। बसों व ट्रेनों में अचानक गलती से छू जाने पर उनको अपमानित किया जाता है। भीड़ उन्हें अपनी बात कहने तक का अवसर नहीं देती है। वह भी इंसान हैं, इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है। हमारे समाज में सभ्य व संस्कारी बेटों या पुरुषों की कमी नहीं है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह हमारे भाई, पिता या कोई रिश्तेदार ही हों, अन्य पुरुष भी इस सूची में शामिल हो सकते हैं। कहने को मनुष्य के पास पांच ज्ञान इंद्रियां होती हैं, लेकिन छठी ज्ञानेन्द्री भी होती है, जिसका प्रयोग आज के समय में सभी को करना आवश्यक है। स्त्री हो या पुरुष उनके आचार-व्यवहार से उनके चरित्र का आंकलन किया जा सकता है। यदि इनका प्रयोग करेंगे तो किसी के साथ भी अन्याय होने की संभावना काफी कम हो जायेगी। जिस प्रकार आज समाज में माहौल बना हुआ है, स्त्रियों के साथ दुराचार की घटनाएं बढ़ रही हैं उनमें यदि उपरोक्त बातों को ख्याल रखा जाये तो संभावना कम हो सकती है। इससे पुरुष भी मानसिक प्रताड़ना के शिकार कम होंगे।

अक्सर ऐसा भी देखा गया है कई केसों में कानून का दुप्रयोग किया जाता है। गलत और मनगडंत आरोप लगाकर, पुरूषों को सलाखों के पीछे पहुंचा कर उनका पूरा जीवन बर्बाद कर दिया जाता है। ऐसा नहीं कि पुरुष अपनी बात कहने की कोशिश का प्रयास नहीं करते या कहते नहीं है! कहते हैं किन्तु मानसिकता के कारण उन पर विश्वास नहीं किया जाता। हमें कारणों के दूसरे पहलुओं पर भी गौर करना चाहिए। आज के समय और घटनाओं को देखते हुए महिला आयोग जैसी संस्था की तरह पुरुष आयोग की भी अत्यंत आवश्यकता है। एक स्वच्छ समाज में सभी को अधिकार मिलने चाहिए। जो गुनाहगार हैं वह केवल महिलाओं के नहीं पूरे सभ्य समाज के गुनाहगार है, उनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए और कानून के दायरे में सख्त से सख्त सजा भी मिलनी चाहिए। गुनाहगारों के कोई मौलिक अधिकार नहीं दिये जाने चाहिए।



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