बुद्ध ने श्रद्धा की मांग नहीं की है। बुद्ध यह नहीं कहते कि भरोसा कर लो। बुद्ध कहते हैं- पहले सोचो, विचारो, विश्लेषण करो, खोजो, अपने अनुभव से पाओ, फिर भरोसा करो। बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म है। बुद्धि पर इसका आदि तो है पर अंत नहीं। गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय है। हिमालय का कोई नहीं।
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बुद्ध के साथ मनुष्य जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने कहा जो आज भी सार्थक है, और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा। बुद्ध ने विश्लेषण दिया, एनालिसिस दी और जो सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने किया, कभी किसी ने नहीं किया था, और न ही फिर दुबारा कोई नहीं कर पाया। उन्होंने जीवन की समस्या के उत्तर, शास्त्र से नहीं दिए, विश्लेषण की प्रक्रिया से दिए। गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय है। हिमालय सा कोई और नहीं। गौतम बुद्ध हिमालय की भांति ही हैं। जिस प्रकार हम हिमालय की तुलना किसी से नहीं कर सकते, वैसे ही गौतम बुद्ध, गौतम बुद्ध हैं उनसा कोई नहीं। पूरे मनुष्य जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं है। गौतम बुद्ध ने जितने दिलों की वीणा को बजाया, उतना शायद किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों परम-भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं। गौतम बुद्ध की वाणी अतुलनीय है।
बुद्ध, धर्म के पहले वैज्ञानिक हैं। उनके साथ श्रद्धा या आस्था की आवश्यकता नहीं है। उनके लिए तो सिर्फ समझ ही पर्याप्त है। अगर तुम समझने को तैयार हो तो बुद्ध की नौका में सवार हो जाएं। अगर श्रद्धा भी आएगी तो वह समझ से ही आएगी। इसलिए बुद्ध ने समझ से पहले श्रद्धा की मांग नहीं की है। बुद्ध यह नहीं कहते कि भरोसा कर लो। बुद्ध कहते हैं- पहले सोचो, विचारो, विश्लेषण करो, खोजो, अपने अनुभव से पाओ, फिर भरोसा करो।
बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म है। बुद्धि पर इसका आदि तो है पर अंत नहीं। शुरूआत बुद्धि से है, प्रारम्भ बुद्धि से है। क्योंकि मनुष्य वहां खड़ा है। लेकिन अंत, अंत उसका बुद्धि से नहीं हैं। अंत तो परम अतिक्रमण है, जहां सब विचार खो जाते हैं, सब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती है_ जहां केवल साक्षी, मात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव उन लोगों में तत्क्षण अनुभव होता है जो सोच-विचार में कुशल हैं।
दुनिया के सभी धर्मों ने पहले भरोसे को रखा है, किन्तु बुद्ध ने समझ को। दुनिया के सभी धर्मों में श्रद्धा प्राथमिक है, फिर ही कदम उठेगा। बुद्ध ने कहा, अनुभव प्राथमिक है, श्रद्धा आनुसांगिक है। अनुभव होगा, तो श्रद्धा होगी। अनुभव होगा, तो आस्था होगी।इसलिए बु द्ध कहते हैं, आस्था की कोई जरूरत नहीं है_ अनुभव के साथ स्वयं ही आएगी, तुम्हें लानी नहीं है। और तुम्हारे द्वारा लाई हुई श्रद्धा का मूल्य क्या हो सकता है? तुम्हारी लायी आस्था के पीछे भी तुम्हारे ही संदेह ही छिपे होंगे।
गौतम बुद्ध ने कहाः मुझ पर भरोसा मत करना। मैं जो कहता हूं, उस पर इसलिए भरोसा मत करना, क्योंकि मैं कह रहा हूं। सर्वप्रथम सोचना, विचारना, जीना। तुम्हारे अनुभवों की कसौटियों पर सही हो जाएं, तो ही सही है। मेरे कहने से क्या सही हो जाएंगे?
बुद्ध के अंतिम वचन हैः अप्प दीपो भव। अपने दीये स्वयं बनो और तुम्हारी रोशनी में तुम्हें जो दिखाई पड़ेगा, फिर तुम करोगे भी क्या आस्था न करोगे, तो करोगे क्या? आस्था सहज होगी। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है।
बुद्ध का धर्म विश्लेषण का धर्म है। लेकिन विश्लेषण से शुरू होता है, समाप्त नहीं होता वहां। समाप्त तो परम संलेषण पर होता है। बुद्ध का धर्म संदेह का धर्म है। लेकिन संदेह से यात्रा शुरू होती है, समाप्त तो परम श्रद्धा पर होती है।
बुद्ध को समझने में बड़ी भूल हुई, क्योंकि बुद्ध संदेह की भाषा बोलते हैं। तो लोगों ने समझा, यह संदेहवादी है। हिन्दू तक न समझ पाए, जो जमीन पर सबसे पुरानी कौम है। बुद्ध निश्चित ही बड़े अनूठे रहे होंगे, तभी हिन्दुओं को भी लगा कि यह हमारे धर्म का आधार गिरा देंगा। किन्तु यही थे जिन्होंने धर्म के आधार को ठीक ढंग से रखा।
श्रद्धा पर भी आधार रखा जा सकता है। अनुभव पर ही
आधार रखा जा सकता है। अनुभव की छाया की तरह श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा अनुभव की सुगंध है। और अनुभव के बिना श्रद्धा अंधी है। और जिस श्रद्धा के पास आंख न हों, उससे तुम सत्य तक नहीं पहुंच पाओगे?
उपनिषद कहते हैं, ईश्वर के संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना तो कह ही देते हैं। बुद्ध ने भी इतना ही कहा। वे परम उपनिषद हैं। उनके पार उपनिषद नहीं जाता। जहां उपनिषद समाप्त होता है, वहां बुद्ध शुरू होते हैं।
बुद्ध महा आस्तिक हैं। अगर परमात्मा के संबंध में कुछ कहना संभव नहीं है तो बुद्ध भी चुप ही रहे, सिर्फ इशारा ही किया।
बुद्ध ने धर्म को शून्यवादी कहा गया है। शून्यवादी उनका धर्म है। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि शून्य पर उनकी बात पूरी हो जाती है। नहीं, बस शुरू होती है।
बुद्ध एक सर्वोच्च शिखर हैं, जिसका आखिरी शिखर हमें दिखाई नहीं पड़ता है। बस थोड़ी दूर तक हमारी आंखें जाती हैं, हमारी आंखों की सीमा है। थोड़ी दूर तक हमारी गर्दन उठती है, हमारी गर्दन के झुकने की सामर्थ्य है। बुद्ध उसमें खोते हुए चले जाते हैं कहीं दूर तक, बादलों के उस पार! उनका प्रारम्भ तो दिखायी पड़ता है किन्तु उनका अंत दिखायी नहीं पड़ता। यही उनकी महिमा है। और प्रारम्भ को जिन्होंने अंत समझ लिया, वे भूल में पड़ गये। प्रारम्भ से शुरू करना_ लेकिन जैसे-जैसे तुम शिखर पर उठने लगोगे और आगे, और आगे दिखाई पड़ने लगा, और आगे दिखाई पड़ने लगेगा। जिनको बुद्ध की थोड़ी सी झलक मिल गयी, उनका जीवन रूपांतरित हो गया। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, जिस दिन ब बुद्ध का जन्म हुआ, घर में उत्सव मनाया गया। सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ है। पूरी राजधानी सजायी गयी, रात भर लोगों ने दिये जलाये, नाचे-गाये। उत्सव मनाया गया। बूढ़े सम्राट के घर बेटा पैदा हुआ था। बड़े दिनों बाद यह प्रतीक्षा पूरी हुई थी। बड़ी पुरानी अभिलाषा थी राज्य की। मालिक बूढ़ा होता जाता था, और नये मालिक की कोई खबर नहीं थी। इसलिए बुद्ध को सिद्धार्थ नाम दिया गया।
सिद्धार्थ का अर्थ होता है- अभिलाषा का पूरा हो जाना।
पहले ही दिन जब द्वार पर बैंड-बाजे बजे, शहनाई बजायी गयीं, फूल बरसाये गये, चारों ओर प्रसाद बांटा गया_ उसी क्षण हिमालय से एक बूढ़ा तपस्वी दौड़ता हुआ आया। उस तपस्वी का नाम था - असिता। सम्राट भी उसका बड़ा सम्मान करते थे। परंतु असिता कभी राजधानी नहीं आया था। शुद्धोधन स्वयं ही जाते थे उनके दर्शन को। वैसे दोनों बचपन के साथी थे, किन्तु शुद्धोधन सम्राट हो गये थे और असिता एक तपस्वी। दोनों बाजार की दुनिया में उलझ गये थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। असिता को द्वार पर देखकर शुद्धोधन ने कहा, आप और यहां? क्या हुआ? कैसे आना हुआ? कोई मुसीबत? कोई अड़चन? कहें! असिता ने कहा, नहीं कोई मुसीबत नहीं, कोई अड़चन नहीं। तुम्हारे घर बेटा हुआ है, उसे देखने आया हूं।
शुद्धोधन तो समझ न पाया। सौभाग्य की घड़ी थी कि असिता जैसे तपस्वी, उनके बेटे के दर्शन को आए हैं। सम्राट, नवजात शिशु को लेकर कक्ष से बाहर आ गए। असिता झुका, और शिशु के चरणों में सिर रख दिया। कहते है, शिशु ने अपने पैर उनकी जटाओं में उलझा दिए। तब से आदमी की जटाओं में बुद्ध के पैर उलझे हैं। आदमी छुटकारा नहीं पा सका है। और असिता हंसने लगा, और फिर वह रोने लगा। शुुद्धोधन ने पूछा इस शुभ घड़ी में आप रो क्यों रहे हो? असिता ने कहा, यह जो तुम्हारे घर बेटा हुआ है, यह कोई साधारण आत्मा नहीं है। यह असाधारण है। कई सदियां बीत जाती हैं। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं है, यह अनंत-अनंत लोगों के लिए सिद्धार्थ है। अनेकों की अभिलाषाएं पूरी होंगी। हंसता हूं कि इनके दर्शन मिल गए। प्रसन्न हूं। इसने मुझ बूढ़े की जटाओं में अपने पैर उलझा दिए। यह सौभाग्य का क्षण है। रोता इसलिए हूं क्योंकि जब यह कली खिलेगी, फूल बनेगे, जब दिग-दिगंत में इसकी सुवास उठेगी, ओर उसकी सुवास की छाया में करोड़ों लोग राहत लेंगे, तब मैं न रहूंगा। अब मेरे शरीर छोड़ने का समय समीप आ गया है।
और एक अनूठी बात असिता ने कही है, वह यह कि अब तक आवागमन छूटने की आकांक्षा थी, वह भी पूरी हो गयी_ आज पछतावा होता है। एक जन्म अगर और मिलता तो इस बुद्ध पुरुष के चरणों में बैठने की, इसकी वाणी सुनने की, इसकी सुगंध को पीने की, इसके नशे में डूबने की सुविधा हो जाती। आज पछताता हूं, लेकिन मैं मुक्त हो चुका हूं। यह मेरा आखिरी अवतरण है_ अब इसके बाद देह न धर सकूंगा। अब तक सदा ही चेष्टा की थी कि कब छुटकारा हो इस शरीर से, कब आवागमन से--- आज पछताता हूं कि अगर थोड़ी देर और रुक गया होता----।
तुम इसे थोड़ा समझो।
बुद्ध के फूल खिलने के समय, असिता चाहता है कि अगर मोक्ष भी दांव पर लगता हो तो कोई हर्जा नहीं। तब से पच्चीस सौ वर्ष बीत गए। बहुत प्रज्ञा पुरुष हुए। लेकिन बुद्ध अतुलनीय हैं। और उनकी अतुलनीयता इसमें है कि उन्होंने इस सदी के लिए धर्म दिया, और आने वाले भविष्य के लिए भी धर्म दिया। बुद्ध ने यह घोषणा की कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। इसलिए एक ही राजपथ पर सभी नहीं जा सकते, सबकी अपनी-अपनी पगडंडी होगी। इसलिए सद्गुरू तुम्हें रास्ता नहीं देता, केवल रास्ते को समझने की समझ देता है। सद्गुरु तुम्हें विस्तार के नक्शे नहीं देता, केवल रोशनी देता है, ताकि तुम खुद विस्तार के नक्शे देख सको और नक्शे तय कर सको। नक्शे रोज बदल रहे हैं, क्योंकि जिंदगी जड़ नहीं है, स्थिर नहीं है। जिंदगी एक प्रवाह है।
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