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Vimla Sharma

भाव ही वह पात्र, जिसमें अमृत ढलता है | Bhava is the vessel in which nectar pours

Updated: Nov 21, 2021


हर जगह संवेदना है। और तुम संवेदना खो दिए हो। भाव खो दिए हो। इसलिए जगत बिलकुल उदास, रौनकहीन, अर्थहीन मालूम पड़ता है। जैसे ही तुम्हारा भाव जगेगा, वैसे ही जगत रूपांतरित हो जाता है। जगत तो यही रहता है, सब कुछ यही रहता है, फिर भी सब बदल जाता है। क्योंकि तुम बदल जाते हो।

नानक कहते हैं, ‘तुम्हारा भाव ही पात्र बनेगा जिसमें परमात्मा का अमृत ढलेगा। अगर तुम्हारे पास भाव नहीं तो तुम परमात्मा से वंचित रह जाओगे। भाव को जगाओ।’

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'भाव वह पात्र है जिसमें अमृत ढलता है।’

तुम विचार से थोड़े हटो और भाव में थोड़े डूबो। बड़ा मुश्किल है। क्या करोगे जिससे तुम भाव में डूब जाओ? सुबह तुम उठे हो। हिंदू उठते थे पुराने दिनों में, सूरज के उगते ही वे सूर्य-नमस्कार करेंगे। वे झुकेंगे सूरज के सामने। वे सूर्य का अनुग्रह स्वीकार करेंगे। वे धन्यवाद देंगे कि तुम फिर आ गए, एक दिन और मिला। फिर तुमने प्रकाश किया। फिर फूल खिलेंगे, फिर पक्षी गीत गाएंगे, फिर जीवन की कथा चलेगी। तुम्हारा धन्यवाद है। तुम्हारा अनुग्रह है। वे सूर्य के सामने हाथ जोड़े सूर्य का प्रकाश पीते थे। और वह जो भाव, अनुग्रह का भाव था, वह उनके हृदय में एक पुलक भर देता था।



नदी जाएंगे तो स्नान करने के पहले प्रणाम करेंगे। एक भाव का संबंध जोड़ेंगे नदी से। तब शरीर को भी नदी धोएगी ही, वह तो तुम्हारा शरीर भी धोती है, लेकिन भीतर भी कुछ धुल जाएगा। क्योंकि वे स्नान करते समय सिर्फ स्नान ही नहीं कर रहे हैं, नदी पवित्र है, वह परमात्मा की है, एक भीतर-भाव सघन हो रहा है। वे भोजन करेंगे तो भी पहले परमात्मा को स्मरण करेंगे, पहले भोग लगाएंगे। पहले उसे, पीछे स्वयं को।




अन्न को हिंदुओं ने ब्रह्म कहा है। वह है भी। क्योंकि तुम्हें जीवन देता है। हिंदुओं ने हर चीज को परमात्मा की स्मृति बना ली। हर जगह से उसके भाव की चोट पड़नी चाहिए। उठते, बैठते, सोते, हर जगह उसकी याद। हमने सब इनकार कर दिया। हमने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? नदी में नहा रहे हो, नदी सिर्फ पानी है। और पानी में क्या है? एचटूओ। कहां का भगवान? सूरज को प्रणाम कर रहे हो! सूरज कुछ भी नहीं है। आग का गोला। किसको प्रणाम कर रहे हो? अगर यह बात सच है, सूरज आग का गोला है, नदी सिर्फ एचटूओ है, तो फिर कहां तुम भगवान को पाओगे? फिर पत्नी क्या है? पत्नी भी कुछ नहीं है, हाड़-मांस। फिर बेटा क्या है? मांस-मज्जा। फिर तुम कहां भाव को जगाओगे?



भाव को जगाने का अर्थ है कि जगत सचेतन है। जो दिखायी पड़ता है, वहां समाप्त नहीं है, उससे भीतर है। बहुत गहरा है। भाव का अर्थ है कि जगत में एक व्यक्तित्‍व है, एक आत्मा है। माना कि बच्चा हाड़-मांस है। वह हाड़-मांस ही नहीं है उसके भीतर कुछ अवतरित हुआ है। उसके भीतर भगवान आए हैं। वह अतिथि है हमारे घर में। वृक्ष, माना कि वृक्ष है लेकिन वृक्ष ही नहीं है, उसके भीतर भी कोई बढ़ रहा है। उसके भीतर भी कोई आनंदित होता है, दुखी होता है। उसके भीतर भी मूड, भाव, संवेग आते हैं। उसके भीतर भी जागरण, तंद्रा आती है।

अभी वैज्ञानिकों ने बड़ी खोज-बीन की है कि वृक्ष भी उतना ही अनुभव करता है, जितना मनुष्य। और वृक्ष की अनुभूति बड़ी गहरी है। उसकी प्रतीति गहरी है। वह उतना ही संवेदनशील है, जितने हम। चट्टानें भी संवेदनशील हैं।



हर जगह संवेदना है। और तुम संवेदना खो दिए हो। भाव खो दिए हो। इसलिए जगत बिलकुल उदास, रौनकहीन, अर्थहीन मालूम पड़ता है। जैसे ही तुम्हारा भाव जगेगा, वैसे ही जगत रूपांतरित हो जाता है। जगत तो यही रहता है, सब कुछ यही रहता है, फिर भी सब बदल जाता है। क्योंकि तुम बदल जाते हो।

नानक कहते हैं, ‘तुम्हारा भाव ही पात्र बनेगा जिसमें परमात्मा का अमृत ढलेगा। अगर तुम्हारे पास भाव नहीं तो तुम परमात्मा से वंचित रह जाओगे। भाव को जगाओ।’ लेकिन भाव को जगाने में एक ही बाधा है कि भाव बुद्धि से विपरीत है। बुद्धि से भिन्न है। संसार में बुद्धि कारगर है, भाव कारगर नहीं है। धन कमाना हो तो भाव से न कमा सकोगे। लुट जाओगे। बुद्धि कहेगी, कोई भी लूट लेगा। अगर राजनीति के शिऽर पर चढ़ना हो, तो भाव से न चढ़ सकोगे। वहां तो कठोरता चाहिए। वहां तो प्रगाढ़ आक्रामक विचार चाहिए। वहां शांति और मौन काम न देंगे। वहां हृदय को तो भूल ही जाना कि जैसे वह है ही नहीं।



मैंने सुनी है भविष्य की एक कहानी कि ऐसा हुआ- भविष्य में- कि आदमी के सभी शरीर के अंग, हृदय, सिर, फेफड़े, गुर्दे, सभी स्पेयर पार्ट्स की तरह मिलने लगे। मिलने ही लगेंगे एक दिन। कि तुम्हारा गुर्दा ऽराब हो गया, तुम गए वर्कशाप में, और तुमने अपना गुर्दा बदलवा लिया, तुम्हारी आंख खराब हो गयी, आंख बदल ली पैर खराब हो गया, बदल लिया और चल पड़े। जैसे कि हम अपनी मोटर को ले जाते हो। चीज बिगड़ गयी, बदल ली, चल पड़े।



एक आदमी का हृदय खराब हो गया। तो गया दुकान पर जहां हृदय बिकते थे। कई तरह के हृदय थे वहां। तो उसने पूछा कि इनके दाम? और इनमें भेद क्या है? तो उस आदमी ने कई तरह के हृदय बताए। कि यह एक मजदूर का हृदय है, यह एक किसान का हृदय है, यह एक गणितज्ञ का हृदय है, यह एक राजनीतिज्ञ का हृदय है और इसके दाम सबसे ज्यादा हैं। आदमी ने कहा, इसका क्या मतलब? तो उसने कहा, इसका उपयोग कभी नहीं हुआ है। ब्रांड न्यू। राजनीतिज्ञ का हृदय है, इसका कभी उपयोग नहीं हुआ। यह बिलकुल बिना उपयोग का पड़ा है। इसलिए इसके दाम ज्यादा हैं। यह एक कवि का हृदय है, इसका दाम सब से कम है। इसका बहुत उपयोग हो गया है, बिलकुल सेकेंड हैंड है। राजनीतिज्ञ को हृदय की जरूरत क्या है? उसका उपयोग खतरनाक है वहां।



तुम अपने हृदय का उपयोग धीरे-धीरे शुरू करो। धीरे-धीरे ही हो सकता है। एक ही बात याद रखो, कि विचार को थोड़ा हटाओ, भाव को थोड़ा लाओ। वृक्ष के पास बैठो। फूल के पास बैठो। विचार मत करो कि यह गुलाब है। नाम से क्या लेना-देना। यह विचार मत करो कि बड़ा गुलाब है। बड़े-छोटे से क्या लेना-देना। उसमें एक अदृश्य सौंदर्य है, तुम उसे पीओ। सोचो मत उसके संबंध में। तुम फूल के पास बैठ कर मौन, फूल के साथ रहो।

जल्दी ही तुम पाओगे कि तुम्हारे हृदय में जो क्रिया चल रही है, उसने तुम्हारे मस्तिष्क की क्रिया को बंद कर दिया है। क्योंकि दो में से एक ही जगह जीवन-ऊर्जा चल सकती है। जैसे ही तुम्हारे हृदय में पुलक आएगी और वह पुलक अनुभव से ही जानी जा सकती है। कोई नहीं कह सकता, क्या है वह पुलक! वह गूंगे का गुड़ है। क्योंकि हृदय के पास कोई भाषा नहीं है।



तुम बैठो फूल के पास, तुम सुनो पक्षी का गीत। तुम वृक्ष से पीठ टेक कर बैठ जाओ, आंख बंद कर लो, उसकी खुरदरी देह को अनुभव करो। तुम रेत पर लेट जाओ, आंख बंद कर लो, रेत के शीतल स्पर्श को अनुभव करो। तुम झरने में बैठ जाओ, बहने दो पानी को तुम्हारे सिर पर से, और तुम उसका प्रीतिकर स्पर्श अपने में डूबने दो। तुम सूरज के सामने खड़े हो जाओ आंख बंद कर के, छूने दो उसकी किरणों को तुम्हें। और तुम सिर्फ अनुभव करो, सोचो मत कि क्या हो रहा है। तुम सिर्फ अनुभव करो।



जो हो रहा है उसे होने दो और हृदय को पुलकित होने दो। तुम जल्दी ही पाओगे कि एक नयी गतिविधि शुरू होती है हृदय में। जैसे एक नया यंत्र, जो अब तक बंद पड़ा था, सक्रिय हो गया। एक नयी धुन बजती है तुम्हारे जीवन में। तुम्हारे जीवन का केंद्र बदल जाता है। और उसी बदले हुए केंद्र पर अमृत की वर्षा होती है

-इक ओंकार सतनाम, प्रवचन- 20



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