हमारे सनातन धर्म में जीवन को आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत, व्यक्ति की उम्र को 100 वर्ष मानकर चार आश्रमों में बांटा गया है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। । यह आश्रम व्यवस्था ही हिंदू समाज की जीवन व्यवस्था है। इसमें प्रथम 25 वर्ष में शरीर, मन और बुद्धि के विकास के लिए हैं। जिस ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया है। दूसरा गृहस्थ आश्रम, जो 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है जिसमें शिक्षा के बाद विवाह कर, पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या कार्य को करते हुए अर्थ और काम का सुख भोगते हैं। 50 से 75 तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर व्यक्ति समाज सेवा, धर्मसेवा, विद्यादान और ध्यान आदि के कार्यों के लिए है। इसे वानप्रस्थ आश्रम कहा गया है। फिर धीरे-धीरे इससे भी मुक्त होकर व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश कर संन्यासियों के ही साथ रहता है।
'जब सोचना ही है तो अच्छा क्यों नहीं, जब करना ही है तो बेहतर क्यों नहींं।'
आज मैं यूटयूब पर एक वृद्धाश्रम की विडियो क्लिप देख रही थी। स्वयं के अतीत का भी अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। किन्तु इतना संतोष रहेगा कि ऊपर जाकर ईश्वर से आंखेेें नहीं चुराने पडेंगी, क्योंकि अपने कर्तव्यों का वहन किया। किन्तु संतोष अभी भी नहीं है, अभी भी लगता है कि शायद यह किया होता तो अच्छा था। जितना भी किया, वह कम ही लगता है।
यूट्यूब विडियो देखने के बाद लगा कुछ करना चाहिए। कुछ ऐसा समाधान निकालना चाहिए जो बुर्जुगों को भी खुश रख सकें और बच्चे भी अपनी लाइफ को एनजॉय कर सकें। वृद्धावस्था एक ऐसी अवस्था है जो सभी के जीवन में आनी ही है। वृद्धावस्था में हमें अपनी युवावस्था नहीं भूलनी चाहिए और युवावस्था में हमें अपने भविष्य अर्थात वृद्धावस्था को नहीं भूलना चाहिए।
कई बुर्जुगों की बातें सुनीं, सभी बच्चों के साथ रहना चाहते हैं। बच्चों की अपनी मजबूरियां हैं। पहले संयुक्त परिवार होते थे तो उम्र का आखिरी पल आसानी से गुजर जाते थे किन्तु अब एकांकी परिवार हैं, परिवार की जिम्मेदारियां जो संयुक्त परिवार में बंट जाया करती थीं, वह एक व्यक्ति पर आ जाती हैं। फिर इसके बाद जिंदगी की भागदौड। प्रतिस्पर्दा की इस दौड में हर व्यक्ति स्वयं में अकेला है।
दूसरी ओर घर के बुजुर्ग, जो सब समझते हैं, कुछ करना भी चाहते हैं किन्तु कुछ कर नहीं पाते। इस उम्र में बीमारियां आकर घेर लेती हैं। घर में उनकी देखभाल के लिए भी कोई चाहिए। आज के समय में पति-पत्नी दोनों ही वर्किंग होते हैं। बच्चों के पास भी समय नहीं होता, वह पहले स्कूल, फिर ट्यूशन आदि में बिजी होते हैं। परिणाम यह होता है कि घर के बुजुर्ग बच्चों के साथ रहते हुए भी अकेला महसूस करते हैं।
हमारे सनातन धर्म में जीवन को आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत, व्यक्ति की उम्र को 100 वर्ष मानकर चार आश्रमों में बांटा गया है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। । यह आश्रम ही हिंदू समाज की जीवन नींव है। इसमें प्रथम 25 वर्ष में शरीर, मन और बुद्धि के विकास के लिए हैं। जिस ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया है। दूसरा गृहस्थ आश्रम, जो 25 से 50 वर्ष की आयु के लिए निर्धारित है जिसमें शिक्षा के बाद विवाह कर, पति-पत्नी धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं। उक्त उम्र में व्यवसाय या कार्य को करते हुए अर्थ और काम का सुख भोगते हैं। 50 से 75 तक की आयु से गृहस्थ भार से मुक्त होकर व्यक्ति समाज सेवा, धर्मसेवा, विद्यादान और ध्यान आदि के कार्यों के लिए है। इसे वानप्रस्थ कहा गया है। फिर धीरे-धीरे इससे भी मुक्त होकर व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश कर संन्यासियों के ही साथ रहता है।
वर्तमान समय में सभी व्यवस्थाएं खत्म हो चुकी है। कोई इनके बारे में जानता तक नहीं है। यही वजह है कि जो हमारे लिए व्यवस्था बनाई गई थीं, उनसे हम भटक गये हैं और आज दुखी और बैचेन हैं। व्यक्ति जीवन के अंत तक पैसा कमाने और अपना वर्जस्व बनाये रखने में लगे रहना चाहता है। वह अपने पूरे जीवन की मेहनत और बच्चों से मोह खत्म नहीं कर पाता। हमारे पूर्वजों ने यह व्यवस्था बहुत ही सोच-समझ कर बनाई थीं। तीसरी आश्रम व्यवस्था अर्थात वानप्रस्थ आश्रम के अनुसार व्यक्ति को अपनी सभी जिम्मेदारियों को बच्चों को देकर वन की ओर गमन करना चाहिए। कहने का अर्थ यह बिल्कुल ही नहीं कि माता-पिता को जंगलों में चला जाना चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि उन्हें बच्चों के जीवन में दखल देना, उन्हें बच्चा समझ कर सलाह देना, न मानने या सुनने पर बुरा मान जाना, यह सब बंद करने देना चाहिए। उन्हें जीवन के उतार-चढाव का अनुभव स्वयं करने देना चाहिए। बुजुर्गों को स्वयं को समाज के सेवा कार्यों, धार्मिक कार्यों, विद्यादान,ध्यान आदि में व्यस्त करना चाहिए। बुजुर्गों को यह बात बिल्कुल ही अपने जेहन से निकाल देनी चाहिए कि वह कुछ नहीं कर सकते। उन्होंने जो अपने जीवन के अनुभव से सीखा, उसे समाज के कार्यों में लगा देना चाहिए। इससे हमारे बच्चे अपनी संस्कृति और सभ्यता के बारे में जानेंगे। आज के बच्चे अपने धर्म संस्कृति के बारे में कुछ भी नहीं जानते। जिस वजह से उन पश्चिमी सभ्यता का रंग आसानी से चढ जाता है।
आज केवल बच्चों को ही दोषी मानना ठीक नहीं। हम जीवन की प्रतिस्पर्दा भरी भाग-दौड में बच्चों को बता नहीं पाये। ‘बी प्रैक्टिकल’ कह कहकर उनके अंदर से भावनाएं खत्म करते चले गये। बच्चे माता-पिता से कभी अलग नहीं होना चाहते। उनका बचपन याद करें तो कुछ बातें अवश्य याद आ ही जायेंगी। उज्जवल भविष्य की दौड में हमने ही उन्हें दौडने को मजबूर किया है। यदि वह आज सब कुछ भूल कर दौड रहे हैं तो हमें तो हमें तो खुश होना चाहिए।
जीवन की वृद्धावस्था और परेशानियां, वास्तव में ही एक समस्या बन चुकी है। वृद्धाश्रम, हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज का एक दागनुमा चेहरा है। इसका समाधान क्या हो सकता है यह हमें सोचना चाहिए।
हमारी भावी पीढी को ही समाधान निकालना चाहिए और परिवार और माता-पिता को बच्चों को, इस कार्य के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। आज अधिकतर एकांकी परिवार हैं। परिवार, 'हम दो हमारे दो' की व्यवस्था पर आधारित हैं। कहीं-कहीं तो एक ही बच्चा होता है। यदि वह लडकी हुई तो शादी के बाद माता-पिता बिल्कुल ही अकेले हो जाते हैं। बेटी चाहकर भी उनके पास या साथ नहीं रह पाती। यदि बेटे हैं तो भी माता-पिता अकेले ही रहते हैं। इस सच को नकारा नहीं जा सकता।
कहते हैं कि घोर अंधकार में भी एक रोशनी की किरण होती ही है जो हमें रास्ता सुझाती है।
हमारे एक जानने वाले हैं, जिनकी दो बेटियां हैं। दोनों बेटियां पढाई पूरी करने के बाद अच्छी जॉब कर रही हैं। माता-पिता उनकी शादी करना चाहते हैं किन्तु बेटियों की शर्त है कि वह उस परिवार में शादी करेंगी जो परिवार मेरे माता-पिता के साथ रह सके। बात करने पर पता चला कि दोनों बेटियों ने फाइव बेडरूप सेट खरीदा है। जिसकी कीमत लाखों में हैं। लडकियों का कहना है कि वह अपने माता-पिता को अकेला नहीं छोड सकतीं, और न ही यह चाहती हैं कि कोई बेटा अपने माता-पिता को असहाय छोडकर घर जमाई बनें। इसलिए उन्होंने इतना बडा फ्लैट लिया है जिसमें दोनों बेटियों के पति अपने माता-पिता के साथ रह सकें। उनके इस निर्णय में उनके माता-पिता पूरी तरह उनके समर्थन में हैं। यहां लडके वालों को भी अपनी इस सोच से बाहर निकल आना चाहिए कि हम लडके वाले हैं, यदि वह यह व्यवस्था स्वयं करें तो भी अच्छा है। बहुओं के साथ उनके माता-पिता भी उनके साथ ही रहें। इसके दो लाभ होंगे कि एक तो उम्र के आखिरी पडाव पर अकेलेपन की समस्या से छुटकारा मिलेगा, दूसरे यदि बच्चे जॉब के सिलसिले में कहीं बाहर जाते हैं तो उन्हें अपने माता-पिता की फिक्र नहीं रहेगी। बच्चों के बच्चों के सामने एक नया उदाहरण होगा। वह अपने संस्कृति और समाज के बारे में आपसे काफी कुछ सीख सकेंगे। बेटियों और दामाद के माता-पिता साथ रहकर समाज के लिए भी,यदि सक्षम हैं, स्वस्थ हैं तो कुछ कर सकेंगे।
वृद्धाश्रम में रहने से तो यह कहीं बेहतर है कि बेटे और बेटियों के माता-पिता संयुक्त परिवार की तरह हंसी-खुशी जीवन जीयें। इससे घर में खुशी का माहौल होगा। न तो बेटियों को माता-पिता की फिक्र होगी क्योंकि वह तो उनके साथ ही हैं और न बेटों को यह आत्मग्लानि होगी कि वह माता-पिता उसके साथ नहीं हैं, वह उनके लिए कुछ नहीं कर पाया। ऐसे में यदि बच्चे यह पहल करते हैं तो माता-पिता को चाहिए कि वह बच्चों के लिए चिंता का कारण न बनकर, उनके लिए एक संबल बनने का कार्य करें।
अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि माता-पिता केवल बेटे की जिम्मेदारी नहीं है, उनकी जिम्मेदारी बेटी-दामाद की भी है। यह एक नई रोशनी की किरण हैं जो बेटियां चाहकर भी अपने माता-पिता का साथ नहीं दे पा रही थीं। वह कुछ कर सकेंगी। यह निर्णय बहुत पहले हो जाना चाहिए था।
यदि हमारा समाज इस व्यवस्था को अपनाता है तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे समाज मेंं वृद्धाश्रम का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। ऐसा नहीं कि वृद्धाश्रम की आवश्यकता नहीं हैं, समाज में ऐसे कई बुजुर्ग हैं जिनका कोई नहीं है, असहाय हैं, गरीब हैं, उनकी देखभाल इन्हीं आश्रमों में की जा सकती है। ऐसे आश्रमों की समाज को मदद अवश्य करनी चाहिए। यह आवश्यक नहीं कि मदद आर्थिक ही हो, आप शारीरिक तौर पर सेवा भाव से, जिसमें आप सक्षम हैं, कर सकतेे हैं। धार्मिक स्थलों पर जाने के साथ-साथ हमें ऐसी जगह भी अवश्य जाना चाहिए और अपना सहयोग देना चाहिए।
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