आज के बदलते माहौल, आवश्यकताओं और जिम्मेदारियों को देखते हुए माता-पिता और बच्चों को शादी का निर्णय बहुत ही सोच समझ करना चाहिए। इसमें जल्दबाजी बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। यदि ऐसा करते हैं तो भविष्य में खुशहाल वैवाहिक जीवन की नींव नहीं रखी जा सकती। शादी जैसे निर्णय में बच्चों की मर्जी को अवश्य शामिल करें। वैसे तो बच्चे पढे-लिखे और समझदार हैं किन्तु यह आवश्यक नहीं कि सभी बच्चे अपनी इच्छा माता-पिता से बेबाकी से कह सकें। यहां माता-पिता को चाहिए कि वह बच्चों के हितों को ध्यान में रखकर ही शादी जैसे अहम निर्णय लें। बच्चों की पढाई-लिखाई और रूचि को रखकर ही परिवार और लडके या लडकी का चयन करें।
शादी का अर्थ है ?
विवाह धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से सबके लिए आवश्यक है किन्तु समय के अनुसार विवाह की सही उम्र पर अलग-अलग मत हो सकते हैं। भारतीय संस्कृति में वैदिक युग से ही पत्नी के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं माने जाते, इसलिए अश्वमेघ यज्ञ के समय भगवान राम को भी माता सीता के स्थान पर प्रतिमा स्थापित करने का जिक्र बाल्मीकी रामायण में मिलता है।
भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक बंधन एवं कर्तव्य समझा जाता है। धार्मिक विश्वास ने भी विवाह को हिंदू समाज में धार्मिक कर्तव्य बताया है। विवाह का धार्मिक महत्व होने से ही अधिकांश समाजों में विवाह की विधि एक धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है, किन्तु सभी धर्मों में विवाह को अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार आवश्यक माना है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। आधुनिक सभ्य समाज में विवाह एक सामाजिक दायित्व है। जो सभ्य समाज के लिए आवश्यक है।
भारतवर्ष में शादी के लिए महिलाओं की उम्र 18 साल और पुरुषों के लिए 21 साल रखी गई है। शादी के लिए उम्र के ये नियम, शारीरिक क्षमताओं को दर्शाते हैं किन्तु यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं कि आपकी इस उम्र शादी करना आवश्यक है।
समय के अनुसार ही आवश्यकताएं और सोच बदली है। पहले लडकी की शादी एक जिम्मेदारी के तौर पर कर दी जाती थी। लडकियों को अधिक पढाया-लिखाया भी नहीं जाता था। एक कहावत थी, ‘क्या करना है पढ-लिखकर? आखिर घर ही तो संभालना है।‘ माता-पिता सोचते थे कि अपने रहते बेटी का ब्याह कर सुरक्षित हाथों में सौंप दें। महिलाओं की भी कोई खास आवश्यकताएं नहीं थीं। बस मौलिक आवश्यकताएं ही थी, रोटी, कपडा और मकान। परिवार संयुक्त होते थे अन्य दायित्व परिवार के बडे-बुजुर्ग निभाते थे। जिससे बेटी की शादी कर माता-पिता निश्चिंत हो जाते थे। बच्चों की शादियां जल्दी कर दी जाती थीं, बच्चे परिवार और नये माहौल में जल्दी घुलमिल जाते थे। घर की महिलाओं की जिम्मेदारी थी कि अपने परिवार के ठीक से देखभाल करना।
पुरूष की जिम्मेदारी थी कि वह अपने परिवार, अपने माता-पिता, अपने बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करें। महिलाओं का बाहर जाकर कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता था। परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने की जिम्मेदारी पुरूषों की ही थी। आवश्यकताएं भी अधिक नहीं थी। सादा जीवन था। किन्तु आज समय बहुत बदल चुका है। शिक्षा का स्तर बढा है। पुरूषों के साथ ही महिलाओं में भी शिक्षा स्तर बढा है। महिलाओं की शिक्षा और उन्हें बढावा देने के लिए सरकार द्वारा निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं।
एक कहावत है कि 'यदि हम बेटे को शिक्षित करते हैं तो केवल एक परिवार या बेटा ही शिक्षित होता है किन्तु यदि हम बेटी को शिक्षित करते हैं तो हम दो परिवारों को शिक्षित करते हैं और आने वाली पीढी को भी शिक्षित करते हैं।' इसके अलावा आज के समय में आर्थिक मोर्चे पर परिवार को स्थापित करने के लिए भी महिला हों या पुरूष सभी दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। लडकियां हो लडके सभी करियर को लेकर काफी गंभीर हैं। करियर को लेकर कोई भी समझौता नहीं करना चाहता। करना भी नहीं चाहिए। आज लडकियां हर क्षेत्र में कार्यरत हैं। समय की आवश्यकताओं को देखते हुए यह आवश्यक भी है। किन्तु समाज में कुछ चुनौतियां भी सामने हैं। बेटा हो या बेटी, सभी के पास विकल्प पहले के मुकाबले अधिक हैं जिससे सहनशीलता में कमी आयी है। पारिवारिक टकराव होने पर कोई भी झुकने को तैयार नहीं होता। समझौता करने के बजाय आमने-सामने खडे नजर आते हैं। जिससे रिश्ते और परिवार टूट रहे हैं।
इसलिए आज के बदलते समय, आवश्यकताओं और अन्य जिम्मेदारियों को देखते हुए माता-पिता और बच्चों को शादी का निर्णय बहुत ही सोच समझ करना चाहिए। इसमें जल्दबाजी बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। यदि ऐसा करते हैं तो भविष्य में खुशहाल वैवाहिक जीवन की नींव नहीं रखी जा सकती। शादी जैसे निर्णय में बच्चों की मर्जी को अवश्य शामिल करें। वैसे तो बच्चे पढे-लिखे और समझदार हैं किन्तु यह आवश्यक नहीं कि सभी बच्चे अपनी इच्छा माता-पिता से बेबाकी से कह सकें। यहां माता-पिता को चाहिए कि वह बच्चों के हितों को ध्यान में रखकर ही शादी जैसे अहम निर्णय लें।
बच्चों की पढाई-लिखाई और रूचि को रखकर ही परिवार और वर या वधू का चयन करें। यदि बेटी नौकरी करती है तो ऐसे परिवार और वर का चयन करें जो बेटी से अधिक नहीं तो, कम से कम समकक्ष हो। उसके भविष्य को अंधकार में न ले जाये। परिवार में लडकी की इच्छाओं को ध्यान में रखा जाये। यह पहले तय करें कि बेटी शादी के बाद जॉब करना चाहती है, या ससुराल पक्ष शादी के बाद जॉब कराने के इच्छुक हैं या नहीं। यदि इन विषयों पर रिश्ता तय होने से पहले बाद हो जाती है तो शादी के बाद खुशहाल जीवन व्यतीत होने की उम्मीद की बढ जाती है।
आर्थिक मुद्दों पर भी पहले ही बात करें। दहेज लोभियों को बेटियां कभी न दें। बल्कि बेटियों को इतना सक्षम बनायें कि वह जीवन की चुनौतियों का सामना अच्छे से कर सकें।
कोशिश करें कि जहां बेटी के साथ दहेज में क्या दिया जा रहा है, यदि इस विषय पर बेटी की गुणों से अधिक अहमियत दी जाती है तो ऐसे रिश्तों से दूर ही रहें। साथ ही बेटों के माता-पिता को भी चाहिए कि वह जिसे अपने घर की बहू बनाकर लाना चाहते हैं उससे या उसके परिवार से उपरोक्त मुद्दों पर खुलकर बात करें।
आप अपनी बहू से भविष्य में क्या उम्मीद रखते हैं, संयुक्त परिवार है या एकांकी परिवार, घर की जिम्मेदारियां क्या है, बहू नौकरी करना चाहती है या नहीं, परिवार शाकाहारी है या मांसाहारी, लडके और लडकी की रूचियां क्या हैं? इस तरह के मुद्दों पर खुलकर बात करें। जिस परिवार में लडकी को आना है, या रहना है उस परिवार का माहौल कैसा है इस बारे में जानना लडकी और लडके दोनों के माता-पिता का जानना आवश्यक है।
शादी जैसा अहम निर्णय जोश में आकर नहीं बल्कि काफी सोच-विचार कर लें। बच्चों को भी पूरा समय सोचने के लिए दें।
आज के समय में मेट्रीमोनियल जैसी संस्थाओं का चलन बढा है किन्तु इन पर भरोसा कम ही होता है। लोग रोजी रोटी की फिक्र में अपनेे मूल स्थानों को छोडकर दूर-दूर शहरों में आकर बस चुके हैं जिससे उन्हें शादी के समय अपनी कम्यूनिटी के लोग कम ही मिल पाते हैं, लेकिन जहां ऐसा नहीं है, कम्यूनिटी के लोग संगठित रूप से रहते हैं वहां माता-पिता पर बच्चों की शादी को लेकर सामाजिक दवाब अधिक होता है। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोग मिल जायेंगे जो शादी-ब्याह में मध्यस्थता करते हैं। किन्तु अपना दायित्व जिम्मेदारी के साथ नहीं निभा पाते। इसलिए ऐसी सोच के लोग बेमेल शादी कराने से भी नहीं चूकते। ऐसे लोगों पर भरोसा कर हम अपने बच्चों का भविष्य को अंधकार की ओर धकेल देते हैं।
अधिकतर असफल शादियों में देखा गया है कि ऐसी शादियां बेमेल होती हैं। बाद में बच्चे सामंजस्य नहीं बिठा पाते और शादियां टूट जाती हैं। इनमें मध्यस्थ के साथ-साथ माता-पिता की भी जिम्मेदारी बनती है वह किसी भी मुद्दे को नजरअंदाज कर शादी की जल्दबाजी न करें। शादी का निर्णय अंतिम निर्णय है। यदि सभी बातें पहले ही साफ हो कर लेनी चाहिए।
इस प्रकार के रिश्तों में आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के बच्चे ही शिकार बनते हैं। यहां बच्चों के माता-पिता को अपनी जिम्मेदारियों को समझना चाहिए, उन्हें ही सोचना चाहिए कि उनके बच्चों के लिए क्या उचित है। माता-पिता को ऐसी सोच के लोगों को अपने परिवार को दूर ही रखना चाहिए।
अपने अनुभव के आधार पर ऐसे लोगों के द्वारा कराये गये रिश्तों में यह देखा गया है कि या तो परिवार टूट जाते हैं या फिर बेटा या बेटी ऐसे हालातों से हार कर बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं। यह एक कडवा और घिनौना सच है। समाज में ऐसी घटनाएं न बढें इसके लिए माता-पिता और समाज को ऐसे लोगों से दूर रखना या रहना चाहिए।
अरेंज मैरिज हो या फिर लव मैरिज, शादी दो लोगों को एक खूबसूरत बंधन में बांधती है। यह जीवन का सबसे खूबसूरत और पवित्र रिश्ता है। शादी का निर्णय लेने से पहले निम्न बातों का अवश्य ख्याल रखें-
आजकल पुरुष हो या महिलाएं, सभी करियर को लेकर बहुत ही गंभीर हैं। कोई भी अपने करियर से समझौता नहीं करना चाहता और करना भी नहीं चाहिए। यदि आपको लगता है कि जिस परिवार में आप जाने वाली हैं, वहां आपके करियर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है तो कभी भी दवाब में आकर शादी के लिए हां न कहें।
यदि आपको अपने भावी जीवनसाथी से मिलकर यह लगता है कि आपके और उसके विचार नहीं मिलते हैं या बातचीत के दौरान किसी भी बात पर अपना पक्ष रखने के दौरान या बहुत समझाने के बाद भी टकराव की स्थिति आती है तो इन बातों को यह कहकर बिल्कुल भी नज़रअंदाज न करें। ये छोटी-छोटी बातें ही रिश्तों में कड़वाहट की वजह बनती हैं।
जिस लड़के या लडकी से शादी करने की सोच रहे हैं उसके बारे में सभी प्रकार की जानकारी अर्जित करें। अगर आपको लगता है कि वह व्यक्ति किसी लत का शिकार है तो हरगिज शादी के बारे में न सोचें। आपके लिए बेहतर यही होगा कि आप पीछे हट जायें।
शादी के लिए सबसे जरूरी और बड़ी बात यह है कि आपका दिमागी तौर से तैयार होंं। यदि आप दिमागी तौर पर तैयार नहीं है तो कभी भी शादी के लिए हां न करें। यदि आपको अपने करियर पर फोकस करना है या फिर आप अपनी लाइफ में कुछ नया करना चाहते हैं तो पहले उसे पूरा करने की कोशिश करें। जब आप मानसिक तौर पर तैयार हों तभी शादी के लिए हां कहें।
अधिकतर मामलों में देखा गया है कि महिला और या पुरुष, दोनों पर ही परिवार और दोस्तों का शादी के लिए प्रेशर होता है। आप चाहें या न चाहें वह अपनी सलाह देने से नहीं चूकते। अगर आप शादी के लिए परिवार, दोस्तों या रिश्तेदारों के प्रेशर में आकर शादी के लिए हां बोलने वाले हैं तो ऐसा कतई न करें। कई मामलों में अक्सर देखा गया है कि प्रेशर में की गई शादी में कुछ समय बाद ही कड़वाहट आनी शुरू हो जाती है, क्योंकि बिना इच्छा के बनाया गया रिश्ता अधिक दिन नहीं चल पाता। बेहतर यही होगा कि आप प्रेशर में न आयें और अपने परिवार और फ्रैंड्स को अपनी भावनाओं और कारणों से अवगत करायें।
पूरी जिंदगी कडवाहट और तनाव में बिताने से, एक बार की ‘न’ बेहतर है।
माता-पिता को भी चाहिए कि ऐसे परिवार से रिश्ता जोडे जो बच्चों के लिए संबल का काम करे न कि जीवनभर की चिंताओं का। शादी जैसे मुद्दों में दोनों पक्ष एक-दूसरे की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर बिना किसी मध्यस्थ के बात करें क्योंकि जब रिश्ता टूटता है तो कोर्ट तक में मध्यस्थ का जिक्र नहीं होता, जो कि होना चाहिए, उनसे भी प्रश्न पूछे जाने चाहिए। जिससे वह भी रिश्ते कराने से पहले अपनी जिम्मेदारियों को समझें।
परिवार और शादियों के टूटने की दूसरी वजह बच्चों की सोच भी है। आजकल परिवार छोटे होते हैं। परिवार में एक या दो बच्चे ही होते हैं। कभी दोनों बेटे होते हैं तो कभी दोनों बेटियां। यहां बच्चों को अपनी सोच बदलनी चाहिए और जिम्मेदारियां को समझना चाहिए। यदि परिवार में दोनों बेटियां हैं तो शादी के बाद माता-पिता बिल्कुल अकेले हो जाते हैं, ऐसे में दामाद की जिम्मेदारी है कि वह अपने माता-पिता के साथ-साथ अपने सास-ससुर का भी उसी प्रकार ख्याल रखे जिस प्रकार अपने माता-पिता का रखना चाहिए। इससे बहुओं और पत्नी के मन में आपके लिए सम्मान बढेगा।
विवाह के समय सात वचनों में से एक वचन में भी इसका वर्णन मिलता है।
भावार्थ: जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।
सास-ससुर को चाहिए कि वह बहू से उसके माता-पिता के बारे में बात करें। उनकी आवश्यकताओं के बारे में बात करें, उनके स्वास्थ्य के बारे में बात करें। यदि संभव हो तो वह स्वयं उनके बारे में जानें। इससे आपसी रिश्ते मजबूत होते हैं। यह भावना निकाल दें कि हम तो भई लडके वाले हैं। अब इन बातों का समय नहीं है। कोई छोटा या कोई बडा नहीं होता, सभी बराबर हैं, वेद-पुराणों, रामायण आदि में भी इस बात का जिक्र साफतौर पर मिलता है।
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैंए उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।)
पहले शास्त्रों में उपरोक्त वचन एकतरफा कहे जा सकते हैं, किन्तु ऐसा है नहीं, पहले के समय में परिवार संयुक्त होते थे, आज की चुनौतियां नहीं थीं। घर की बहुएं परिवार में रच-बस जाया करती थीं। सास-बहू के रिश्ते मजबूत और मधुर हुआ करते थे। कुछ मर्यादाएं थी, जो शायद ही कभी लांघी जाती थीं। आज के समय में यही सारे वचन जो वर, वधू को देता है वही सभी वचन वधू को भी वर को स्वयं देने चाहिए।
बहुओं को चाहिए कि वह अपनी इस सोच से बाहर निकले कि पति-पत्नी और बच्चे ही हमारा परिवार है। माता-पिता की जिम्मेदारी भी बहू-बेटों की है। वह भी आपके परिवार का हिस्सा है। सास-ससुर की आवश्यकताओं की चिंता बहू अपने माता-पिता की तरह करे। यदि बहू-बेटे ऐसा करते हैं तो वह जाने-अनजाने अपना भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं और बच्चों में अच्छे संस्कार रोपित कर रहे होते हैं। बच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं, वह सीखते वही है जो उनके सामने कार्यान्वित रूप से होता है न कि जो उन्हें समझाया जाता है।
हर परिवार में थोडा-बहुत मनमुटाव होना आम बात है। लडकी के माता-पिता को चाहिए कि वह बेटियों के घरेलू मामलों में दखलअंदाजी कम करे और बेटियों को उनकी जिम्मेदारियां बतायें।
कहने को तो ये छोटी-छोटी बातें हैं किन्तु एक परिवार को खुशहाल रखने में अहम रोल अदा करती हैं। माता-पिता तभी निश्चिंत और स्वयं को सुखी महसूस करते है, जब उनके बच्चेे परिवार में खुशहाल जीवन जी रहे होते हैं। इसलिए माता-पिता काे चाहिए कि वह उपरोक्त बातों पर विचार अवश्य करें।
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