जिंदगी में कुछ भी ठहराव नहीं है, जिंदगी में कुछ ठहरा हुआ नहीं है। आप जिंदगी में कुछ ठहराने की कोशिश में मत पड़ जाना। हम सब पड़े हैं कोशिश में। यह कोशिश चिंता बन जाती है। यह कोशिश विषाद बन जाती है। यह कोशिश, संताप बन जाती है। यह कोशिश हमें पागल कर देती है। यह कोशिश ही हमारे व्यक्तित्व को रुग्ण और बीमार कर देती है। जिंदगी की धारा में कुछ भी ठहरता नहीं है। इसे प्रतिपल जो स्मरण रखेगा, वह विक्षिप्त नहीं होगा, वह पागल नहीं हो जाएगा।
............................................................
जिंदगी में जो भी है, कुछ भी ठहरता नहीं है। पूरी तरह आ भी नहीं पाता कि चला जाता है। जिंदगी एक धारा है, नदी, एक लक्ष्य। किनारे छू भी नहीं पाते कि छूट जाते हैं। आ भी नहीं पाती चीज, कि चली जाती है। चीज तो चली जाती है, और हमें परेशान कर चली जाती है।
एक आदमी गाली दे जाता है। गाली आती है, गूंजती है और चली जाती है और हम उस गाली के बारे में ही सोचते रहते हैं और हमारी रात भर की नींद गायब हो जाती है। गाली तो टिकती नहीं, लेकिन हम गाली पर टिक जाते हैं। जिंदगी तो एक बहाव है, लेकिन आदमी जोर से क्लिंगिंग करता है और हर चीज को पकड़ लेता है।
एक सुबह बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया। क्रोध में था, गुस्से में था, थूक दिया। बुद्ध ने अपनी चादर से अपना मुंह पोंछ लिया और उस आदमी से कहा, और कुछ कहना है?
उस आदमी ने कहा, कहना? मैंने कुछ कहा नहीं, सीधा अपमान किया है आपका!
बुद्ध ने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, तुम कुछ कहना ही चाहते हो, लेकिन शब्द कहने में असमर्थ होंगे, इसलिए थूक कर तुमने कहा है। बुद्ध ने कहा, अक्सर ऐसा होता है, कोई बहुत प्रेम में होता है तो शब्द से नहीं कह पाता तो वह गले लगा लेता है। कोई बहुत श्रद्धा में होता है, शब्द से नहीं कह पाता तो चरणों पर सिर रख देता है। कोई बहुत क्रोध में होता है, शब्द से नहीं कह पाता तो थूक देता है। मैं समझता हूं तुमने कुछ कहा है और भी कुछ कहना है कि बात पूरी हो गई?
वह आदमी बड़ी मुश्किल में पड़ गया होगा। वह वापस लौट गया। रात भर सो न सका। सुबह बुद्ध से क्षमा मांगने आया। उनसे कहने लगा, मुझे माफ कर दें।
बुद्ध ने कहा, किस बात की तुम माफी मांगते हो?
उसने कहा कि मैं कल आपके ऊपर थूक गया था।
बुद्ध ने कहा, न अब थूक बचा, न अब कल बचा, न अब तुम वही हो, न अब मैं वही हूं। कौन किसको क्षमा करे? कौन किस पर नाराज हो? चीजें सब बह गईं। तुम भी वही नहीं रहे, क्योंकि कल तुम थूकते थे, आज तुम चरणों पर सिर रखते हो। कैसे मानूं कि तुम वही हो?
सब बह जाता है। जिंदगी एक बहाव है। इस जिंदगी में जो मकान बनाते हैं, उन्हें इस बहाव का पता नहीं है, इसलिए नदी पर मकान बनाने की कोशिश में नष्ट हो जाते हैं। लेकिन हम हर चीज को जोर से पकड़ लेते हैं। जो आदमी जिंदगी में चीजों को जोर से पकड़ रहा है, वह धारा के खिलाफ, जीवन की धारा के खिलाफ परेशान होगा। वह इतना परेशान हो जाएगा, अपने ही हाथ से।
मैंने सुना है कि सूफियों में एक कहानी है। वे कहते हैं कि एक नदी जोर से बही जाती थी, तेज थी धार, बहाव था बाढ़ का। और दो छोटे से तिनके नदी में बह रहे थे। एक तिनका नदी में आड़ा पड़ा हुआ था और नदी से लड़ रहा था। कोशिश कर रहा था कि नदी को आगे नहीं बढ़ने देगा। बहा जा रहा था, क्योंकि नदी को कहां पता चलेगा कि एक तिनका नदी को आड़ बन कर रोकने की कोशिश कर रहा है! लेकिन बड़ा बेचैन था, क्योंकि लड़ रहा था पूरे वक्त और हार रहा था पूरे वक्त। लड़ रहा था और हार रहा था। चेष्टा कर रहा था और डूब रहा था। संघर्ष कर नीचे की तरफ बह रहा था। ऊपर चढ़ना चाह रहा था और नीचे की तरफ जा रहा था। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन तिनका बड़ा परेशान था। दूसरा तिनका नदी में आड़ा पड़ा हुआ नहीं था, सीधा पड़ा था। नदी की धारा की तरफ पड़ा हुआ था। वह दूसरा तिनका नदी के साथ बह रहा था और बड़ा आनंदित था और यह सोच रहा था मन में कि मैं नदी को बहने में सहायता दे रहा हूं। नदी को उसका भी पता नहीं था, लेकिन वह परेशान नहीं था। नदी को उन दोनों तिनकों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन उन दोनों तिनकों के दृष्टिकोण से उन दोनों तिनकों को बहुत फर्क पड़ रहा था।
जिंदगी की धारा में आप आड़े तिनके की तरह पड़े हैं या जिंदगी की धारा में आप सीधे तिनके की तरह पड़े हैं? अगर जिंदगी की धारा में आप बहने को राजी हैं, तो यह जिंदगी की धारा आपको परमात्मा तक पहुंचा ही देगी। अगर आप बहने को राजी नहीं हैं, तो आप बहुत परेशान होंगे। और वह परेशानी का धुंआ इतना घना हो जाएगा कि अगर परमात्मा का सागर सामने भी आ जाए तो आपको दिखाई नहीं पड़ेगा, सिर्फ अपनी हार ही दिखाई पड़ती रहेगी, अपनी असफलता ही दिखाई पड़ती रहेगी।
तो दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं वह यह कि जिंदगी में कुछ भी ठहराव नहीं है, जिंदगी में कुछ ठहरा हुआ नहीं है। आप जिंदगी में कुछ ठहराने की कोशिश में मत पड़ जाना। हम सब पड़े हैं कोशिश में। यह कोशिश चिंता बन जाती है। यह कोशिश विषाद बन जाती है। यह कोशिश, संताप बन जाती है। यह कोशिश हमें पागल कर देती है। यह कोशिश ही हमारे व्यक्तित्व को रुग्ण और बीमार कर देती है। जिंदगी की धारा में कुछ भी ठहरता नहीं है। इसे प्रतिपल जो स्मरण रखेगा, वह विक्षिप्त नहीं होगा, वह पागल नहीं हो जाएगा।
सुना है मैंने कि एक सम्राट ने अपने वजीर को कहा था कि कोई ऐसा सूत्र मेरे लिए लेकर आओ किसी ज्ञानी से, जो मेरे लिए हर समय काम आ सके। तो एक फकीर से वे एक सूत्र ले आए। किंतु उस फकीर ने कहा कि यह ताबीज मैं देता हूं, लेकिन सम्राट तब तक इसे न खोले जब तक कि सच में ही जरूरत न पड़ जाए। तो ताबीज लटका लिया गया, वर्षों बीत गए, जरूरत कुछ खास पड़ी नहीं सम्राट को, खोला भी नहीं।
फिर दुश्मन ने हमला किया और सम्राट हार गया। और वह अपने घोड़े पर भागा जा रहा है। सब हार चुका है। दुश्मनों के घोड़ों की टाप पीछे सुनाई पड़ रही है, भाग रहा है। आखिर में कि एक पहाड़ के किनारे पर पहुंच गया है, जहां आगे कोई रास्ता नहीं है, सिर्फ खाई है, रास्ता समाप्त हो गया है। दुश्मन की टाप पीछे सुनाई पड़ रही है, पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है। तब उसे याद आया कि मैं वह ताबीज खोल कर देख लूं। उसने वह ताबीज खोल कर देखा, उसमें एक छोटे से कागज पर लिखा हैः यह भी बीत जाएगा। बस इतना ही लिखा हैः यह भी बीत जाएगा। दिस टू इज़ नॅाट गोइंग टु स्टे। यह भी ठहरेगा नहीं। यह भी बीत जाएगा। एकदम से उसकी समझ में नहीं आया कि क्या मतलब है? लेकिन सच में ही वह भी बीत गया। वे घोड़े की टापें, वे आवाजें जंगल में कहां खो गईं, कुछ पता न रहा।
सात दिन बाद वह सम्राट उसी राजधानी में वापस पहुंच गया, सात दिन बाद वह अपने महल में बैठा। तब उसने उस फकीर को बुलवाया और कहा कि मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि ताबीज में एक छोटा सा कागज का टुकड़ा और एक छोटी सी बात! लेकिन अगर यह कागज का टुकड़ा न होता, तो सम्राट ने कहा कि शायद मैं उस गड्डे में कूद कर और आत्महत्या करने की तैयारी कर रहा था। लेकिन यह सोच कर कि यह भी बीत जाएगा, मैंने कहा, थोड़ी देर और प्रतीक्षा कर लूं।
सब बीत जाता है। दुख भी बीत जाते हैं, सुख भी बीत जाते हैं। दुख में स्मरण रखना कि बीत जाएगा, तो दुख पीड़ा न देगा। सुख में स्मरण रखना कि बीत जाएगा, तो सुख अहंकार न देगा। असफलता में स्मरण रखना कि बीत जाएगी, तो चिंता न होगी। सफलता में याद रखना कि बीत जाएगी, तो पागलपन पैदा न होगा। सुख में, दुख में_ छाया में, प्रकाश में_ बीमारी में, स्वास्थ्य में_ रात में, दिन में_ जवानी में, बुढ़ापे में_ जन्म में, मृत्यु में--- जो याद रख सकता हैः यह भी बीत जाएगा, उसकी जिंदगी से तनाव, विदा हो जाते हैं। उसकी जिंदगी में कोई तनाव नहीं रह जाता।
और जिसकी जिदगी में तनाव नहीं है, वह परमात्मा के मंदिर की तरफ कदम बढ़ा सकता है। जिसकी जिंदगी में तनाव है, वह सिर्फ पागलखाने की तरफ कदम बढ़ाता रहता है। हम सब पागलखाने की तरफ कदम बढ़ाए चले जाते हैं। कोई जरा दरवाजे पर पहुंच गया है, कोई दरवाजे के भीतर पहुंच गया है, कोई दरवाजे से जरा दूर है, कोई सड़क पर है, कोई चौराहे पर है, लेकिन रुख, चेहरा हमारा पागलखाने की तरफ है। विलियम जेम्स एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। वह एक दफा पागलखाने में गया तो फिर लौट कर कभी प्रसन्न नहीं हो सका। दिन बीतने लगे, उसकी पत्नी चिंतित, उसके मित्र चिंतित। उन्होंने कहा, तुम इतने उदास क्यों हो गए हो? तो विलियम जेम्स ने कहा कि जब से मैं पागलखाने से लौटा हूं, मेरी सारी खुशी चली गई! पर उन्होंने कहा, ऐसी क्या बात है पागलखाने में?
तो विलियम जेम्स ने कहा, पागलखाने में जिन लोगों को मैंने देखा, कल वे सभी लोग मेरे ही जैसे लोग थे। तो मुझे यह ख्याल आया कि कहीं ऐसा तो न होगा कि किसी दिन मैं भी पागलखाने में पड़ जाऊं? उन सबने समझाया कि तुम व्यर्थ की बातों में पड़े हो। तुम क्यों पागल होने लगे? तो विलियम जेम्स ने कहा कि उनके घर के लोग भी उनको यही समझाते होंगे, अगर वे कहते कि हम पागल तो न हो जाएंगे! तो वे कहते कि तुम पागल क्यों होओगे? कैसी बातों में पड़े हो? लेकिन वे पागल हो गए। मुझे कौन पागल होने से रोक सकेगा? क्योंकि चिंतित हूं मैं वैसा ही जैसे वे लोग कल चिंतित थे। आज उनकी चिंता की मात्र बढ़ गई है, बस इतना ही फर्क है। परेशान हूं मैं भी, जैसे वे लोग परेशान थे। उनकी परेशानी सौ डिग्री पार कर गई है। मेरी परेशानी अठानबे डिग्री पर होगी, नब्बे डिग्री पर होगी। लेकिन कितनी देर लगेगी कि मैं भी सौ डिग्री के पास नहीं पहुंच जाऊंगा?
हम सब चिंतित, परेशान, तनाव से भरे हुए, पागलखाने की तरफ मुंह किए हुए हैं। परमात्मा की तरफ मुंह, पागलखाने की तरफ पीठ करने से होता है। और पागलखाने की तरफ पीठ वही कर सकता है जो जिंदगी में जरा भी तनाव नहीं पालता। पालता ही नहीं तनाव, जो टेंशन मोल ही नहीं लेता। चीजें आती हैं, बीत जाती हैं, वह खड़ा रह जाता है। तूफान आते हैं, बड़े वृक्ष गिर जाते हैं। क्योंकि बड़े वृक्ष बड़े तनाव पालते हैं, बड़े अकड़े होते हैं। ऊंचे होने का पागलपन और अंहकार हो जाता है। तूफान आते हैं तो बड़े वृक्ष गिर जाते हैं, छोटे घास के पौधे झुक जाते हैं। तूफान चला जाता है, पौधे वापस खड़े हो जाते हैं।
जिंदगी तूफान है, बहुत आंधियां हैं वहां। चौबीस घंटे न मालूम चारों ओर क्या-क्या हो रहा है। जो आदमी एक-एक तफूान में टूटेगा, वह आदमी टूट ही जाएगा। जो आदमी प्रत्येक तूफान में जानेगा-यह भी बीत जाएगा, वह आदमी हर तूफान के बाद फिर खड़ा हो जाएगा। और जो सैकड़ों तूफानों के बाद खड़ा हो जाता है, फिर उसे तूफान तूफान नहीं, खेल मालूम पड़ने लगते हैं। फिर तूफान घबड़ाते नहीं, लीला हो जाते हैं।
धार्मिक व्यक्ति के चित्त निर्माण में यह दूसरा सूत्र भी बहुत जरूरी है कि हम जिंदगी में ऐसे गुजर जाएं जैसे कोई आदमी पानी से गुजरे और पानी उसके पैरों को न छुए। बड़ा मुश्किल है! पानी से गुजरेगा तो पानी तो पैरों को छुएगा ही। लेकिन जिंदगी से जरूर आदमी ऐसे गुजर सकता है कि जिंदगी उसे न छुए। जिंदगी छूती नहीं, हम पकड़ लेते हैं।
अब बुद्ध चाहते तो पकड़ सकते थे कि यह आदमी थूक गया, इसने क्यों थूका? अब मैं क्या करूं और क्या न करूं? और रात भर चिंतित हो सकते थे। वे पकड़ लेते। थूक आया और गया, गाली आई और गई। पकड़ते हैं हम, जिंदगी हमें कुछ नहीं पकड़ाती। हम जोर से पकड़ लेते हैं। और हमारी पकड़, हमारी क्लिंगिंग हमारी चिंता, हमारी बेचैनी बन जाती है। और धीरे-धीरे हम इतने अशांत हो जाते हैं कि हम लोगों से पूछते फिरते हैं कि शांत कैसे हों? मेरे पास न मालूम कितने लोग आते हैं। वे कहते हैं, शांत कैसे हों?
मैं उनसे पूछता हूं कि पहले तुम मुझे बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जब तक यह पता न चल जाए कि तुम कैसे अशांत हुए, तो शांत कैसे हो सकोगे!
एक आदमी मेरे पास लाया गया। उसने कहा, मैं अरविंद आश्रम से आता हूं। शिवानंद के आश्रम गया हूं। महेश योगी के पास गया हूं। ट्टषिकेश हो आया। यहां गया, वहां गया। रमण के आश्रम गया हूं। कहीं शांति नहीं मिलती। तो किसी ने आपका मुझे नाम दिया तो मैं आपके पास आया हूं।
तो मैंने कहा, इसके पहले कि तुम निराश होकर लौट जाओ, तुम लौट जाओ पहले ही। नहीं तो तुम और लोगों से भी जाकर कहोगे कि वहां भी गया और शांति नहीं मिली। तो तुम अभी ही लौट जाओ, इसके आगे बात करनी उचित नहीं है। उसने कहा, क्या मतलब आपका? मैं तो बड़ी आशा से आया हूं।
तो मैंने उस आदमी को कहा कि अशांति सीखने तुम किस आश्रम में गए थे? किस गुरु से अशांति सीखी? अशांति तुम सीखोगे और शांति मैं न दे पाऊंगा तो अपराधी मैं हो जाऊंगा। मैंने उस आदमी से पूछा, तुम फिकर छोड़ो शांति की, तुम मुझे यह बताओ कि तुम अशांत कैसे हुए? क्योंकि जो अशांत होने का ढंग है उसी में कुंजी छिपी है शांत होने की, और कहीं कोई शांति नहीं खोज सकता।
अशांत होते हैं हम, जिंदगी के साथ जोर से चिपक जाते हैं इसलिए अशांत होते हैं। जिंदगी को बहने नहीं देते, तिनके की तरह आड़े लड़ते हैं जिंदगी से, तो अशांत होते हैं। उस तिनके की तरह सीधे नहीं नदी में बह जाते। नहीं तो फिर अशांति का कोई कारण नहीं है। अशांत हम होते हैं, और शांति हम खोजते हैं कि किसी मंत्र से मिल जाए, किसी माला से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि किसी के आशीर्वाद से मिल जाए। शांति हम खोजते हैं कि परमात्मा की कृपा से मिल जाए। हम अशांत होने का पूरा इंतजाम करते चले जाते हैं और शांति खोजते रहते हैं। तब यह शांति की खोज सिर्फ एक और नई अशांति बन जाती है, और कुछ भी नहीं होता।
इसलिए साधारण आदमी साधारण रूप से अशांत होता है, धार्मिक आदमी असाधाारण रूप से अशांत हो जाता है। क्योंकि वह कहता है, शांति भी चाहिए। और वह जो चाहिए था सब, वह तो चाहिए ही, वह धन भी चाहिए, वह यश भी चाहिए, वह पद भी चाहिए, वह सब तो चाहिए ही, शांति भी चाहिए। उसकी फेहरिस्त में एक चाह और बढ़ गयी--शांति भी चाहिए। आगे लिखेगाः परमात्मा भी चाहिए। और उसकी अशांति और बढ़ जाएगी। इसलिए किसी घर में एक आदमी तथाकथित धार्मिक हो जाए, तो खुद तो अशांत होता है, बाकी लोगों को भी शांत रहने देने में दिक्कत डालने लगता है। शांति चाहिए, यह भी उसके लिए अशांति ही बन जाती है। शांति चाही नहीं जा सकती, सिर्फ अशांति समझी जा सकती है। शांति को चाहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि चाह अशांति है। इसलिए शांति को कैसे चाहेगा? शांति इच्छा नहीं बन सकती। शांति सिर्फ अभाव है।
स्वास्थ्य क्या है? अगर किसी डाक्टर से पूछें जाकर, स्वास्थ्य क्या है? तो वह कहेगा--बीमारियों का अभाव। इसलिए अगर किसी डाक्टर से कहें कि मुझे स्वास्थ्य का इंजेक्शन लगा दें! तो वह कहेगा, क्षमा करें मुझे। हम बीमारी ठीक करने का इंजेक्शन लगा सकते हैं, स्वास्थ्य का कोई इंजेक्शन नहीं है। डाक्टर से आप कहें कि हमें स्वास्थ्य दे दीजिए! तो वह कहेगा, हम बीमारी ठीक कर सकते हैं, स्वास्थ्य कैसे दे देंगे?
हां, बीमारी नहीं बचेगी तो जो बच रहेगा वह स्वास्थ्य है। इसलिए किसी मेडिकल साइंस की किसी किताब में, चाहे आयुर्वेद हो, और चाहे एलोपैथी हो, और चाहे होमियोपैथी हो, स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं है, कोई डेफिनेशन नहीं है कि स्वास्थ्य क्या है। सिर्फ बीमारियों की परिभाषाएं हैं कि बीमारी क्या है? और जहां बीमारी नहीं होती, वहां जो शेष रह जाता है, वह स्वास्थ्य है। इसलिए स्वास्थ्य की सब परिभाषाएं निगेटिव हैं, सब नकारात्मक हैं। बीमारी जहां नहीं है, वहां स्वास्थ्य है। अशांति के कारण जहां नहीं हैं, वहां शांति है। और ध्यान रहे, अगर आप सोचते हों कि परमात्मा हमें शांति दे दे, तो आप बड़ी गलती में पड़ेंगे। परमात्मा से आपका संबंध ही तब होगा जब आप शांत होंगे। इसलिए परमात्मा कोई शांति नहीं दे सकता।
अगर आप सोचते हों कि परमात्मा हमें शांति दे दे, तो आप बड़ी गलत कंडीशन लगा रहे हैं। परमात्मा से संबंध ही तब होता है जब आप शांत हों। और जिससे संबंध ही नहीं है, उसकी तरफ की गई प्रार्थना अंधेरे में फेंक दी जाती है, कहीं नहीं पहुंचती। जिससे संबंध नहीं, कम्यूनिकेशन नहीं, उसके साथ प्रार्थना का संबंध नहीं बन पाता। शांत आदमी ही प्रार्थना कर सकता है।
ओशो, धर्म साधना के सूत्र-8
Comments