यह भारत के हर घर की कहानी है। बेटों की उम्मीद में परिवार बढ जाते हैं, फिर बच्चों को न अच्छी शिक्षा, मिल पाती है और नही अच्छी परवरिश। अच्छा जीवन यापन करना मुश्किल हो जाता है। बेटियां, बेटों के मुकाबले किसी भी लिहाज से कम नहीं होतीं, बल्कि बेहतर ही होती हैं। किन्तु रूढिवादी विचारों के कारण माता-पिता को बच्चियों के भविष्य से कोई लेना-देना नहीं होता। एक बोझ समझकर बेमैल विवाह कर दिये जाते हैं।
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दिसम्बर की सर्द शाम थी। घटना 90 की दशक की है। घर में नया मेहमान आने वाला था। मां-बापू के पास पहले ही एक बेटी थी, इसलिए अफसोस नहीं था, किन्तु इस बार सभी घर की चौपाल में बेटे की आस लगाये बैठे थे, तभी अचानक बच्चे की रोने की आवाज आई। सभी ने एक उम्मीद से एक-दूसरे की ओर देखा, तभी अंदर से एक उम्र दराज अम्मा आई और खामोशी के साथ बाहर जाने लगीं, तभी दादाजी ने पूछ ही लिया, इमरती नेग नहीं लोगी, इमरती बोली, ‘नेग तुम्हीं रख लो, लक्ष्मी आई है।’ यह शब्द सुनते ही चौपाल में बैठे सभी लोगों को अपने-अपने काम याद आने लगे और सभी एक-एक कर मुबारकबाद देकर चलते बने। बापू ने तो अपने अंदर के दर्द को छिपा लिया, जैसे कि कोई बडा जूआ हार गये हों। वैसे थे तो काफी खुले विचारों के थे किन्तु अशिक्षा और रूढिवादी विचारों के कारण उन्हें भी वंश चलाने के लिए बेटा ही चाहिए था। मां खुश थी, किन्तु बढती जिम्मेदारियों से अनजान नहीं थी।
समय अपनी चाल से बीतता गया। बापू को लगा कि जिम्मेदारियां बढ गई हैं इतनी तनख्वाह से घर चलाना मुश्किल है। साथ ही उनके मन में बच्चे के भाग्य को अजमाने की भी इच्छा थी इसलिए उन्होंने लगी-लगाई नौकरी छोड दी। उस समय 150/- महीना मिलता था जो काफी कम लगा। बच्ची के जीवन की यह पहली परीक्षा थी। शहर आकर बापू ने नई नौकरी की तलाश शुरू कर दी। यदि बच्ची इस परीक्षा में फेल हो जाती तो शायद अनर्थ हो जाता। बापू की नई नौकरी लग गई। इस बार तनख्वाह 500/- महीना थी। इस बार यदि बच्ची परीक्षा में फेल हो जाती तो शायद सभी को कोसने का मौका मिल जाता, ईश्वर को शायद दया आ गई। अब बापू को बेटी से कोई शिकायत नहीं थी। उन्हें पैसे बढने की इतनी खुशी नहीं जितनी इस विश्वास से खुशी थी कि बच्ची भाग्यशाली है।
यह उस बच्ची का स्वर्णिम समय था। वह सभी की चहेती बन गई। पैरों में पायल पहने पूरे आंगन में छम-छम करती फिरती। वह पूरे घर की रौनक बनी हुई थी। लेकिन यह समय अधिक समय नहीं रहा।
फिर एक बार घर में नये मेहमान के आगमन का समय आ गया। बापू को तो जैसे पूरा विश्वास था कि इस बार बेटा ही होगा। किन्तु ऐसा हुआ नहीं, एक बार फिर घर में बेटी की किलकारी गूंजी। दादी पूरी तरह मायूस हो गई थीं। कुछ समय बाद वह भी चली गईं।
एक दिन घर में पंडित जी आये। बापू ने बच्ची के भाग्य के बारे में पूछा। सभी बच्चों की कुंडली भी बनने को दे दी। पंडित अच्छे जानकार लगते थे, किन्तु थे नहीं। पंडित जी ने कहा, किे इस बार बेटा न हो तो मेरा नाम बदल देना। यह बेटी आपकी बडी भाग्यशाली है। आपके तो जैसे भाग्य ही खुल गये हैं। धीरे-धीरे दिन बदलते गये। दूसरी बेटी, अनचाही संतान बनकर रह गई। सिंड्रैला की यह कठिनाईयों की शुरूआत थी। कुछ दिनों बाद एक साथ दो बेटों का जन्म हुआ। बापू तो जैसे हवा में उडने लगे। एक साथ दो पुत्रों को पाकर वह बावले हो गये, ऐसा मालूम होता था कि जैसे करोडों का खजाना मिल गया हो। अब वही बेटी सब कुछ हो गयी जिसके बाद बेटे हुए थे। घर के खर्चे बढ गये। कुछ समय पहले की घर की रौनक सिंड्रैला बन कर रह गयी। बडी बेटी, पहली संतान थी, इसलिए चहेती बनी रही। दूसरी अनचाही और तीसरी ने तो बेटों को लेकर आयी थी तो वही सब कुछ थी। कुछ मिलाकर घर में सात सदस्य हो गयी।
घर की आर्थिक हालत नाजुक थी, किन्तु बापू को अब कोई फर्क नहीं पड रहा था। वह दो बेटों की खुशी में मग्न थे। जैसे-तैसे समय बीतता गया। आजादी के 4-5 दशकों के बाद भी सोच नहीं बदली थी। बडी के लिए जो आता वही मझली को उतरन के रूप में मिल जाता। मझली को जैसे सभी ने देखना ही छोड दिया था, न उसके खान-पान की चिंता, न कपडेां की, न शिक्षा की, न सेहत की, और न प्यार और दुलार की...।
यह भारत के हर घर की कहानी है। बेटों की उम्मीद में परिवार बढ जाते हैं, फिर बच्चों को न अच्छी शिक्षा, मिल पाती है और नही अच्छी परवरिश। अच्छा जीवन यापन करना मुश्किल हो जाता है। बेटियां, बेटों के मुकाबले किसी भी लिहाज से कम नहीं होतीं, बल्कि बेहतर ही होती हैं। किन्तु रूढिवादी विचारों के कारण माता-पिता को बच्चियों के भविष्य से कोई लेना-देना नहीं होता। एक बोझ समझकर बेमैल विवाह कर दिये जाते हैं। जो बच्चे माता-पिता के रहते बडे नहीं हो पाते, वह बडे भाई-बहनों पर निर्भर हो जाते हैं। भाग्य साथ दे तो सब ठीक, नहीं तो माता-पिता के समय से पहले जाने के कारण अनाथों सा जीवन व्यतीत करते हैं। गरीबी के कारण आर्थिक दशा कमजोर हो जाती है, शारीरिक रूप से भी कमजोर हो जाते हैं। बाकी रही-सही कसर शादी ब्याह के खर्चे और रीति रिवाज पूरी कर देते हैं। अंतिम समय में माता-पिता आर्थिक और शारीरिक रूप से कमजोर हो जाते हैं।
बेटियां ब्याह दी गयीं, दोनों बेटों की भी शादी हो गयी। दोनों बेटे अपनी गृहस्थी में मग्न हैं। उन्हें दुनिया-जहान से कोई लेना-देना नहीं। जिन बेटों की खातिर बापू सब कुछ करने को तैयार थे, उन बेटों के पास अब अपने माता-पिता के लिए समय नहीं था। वह उनकी आवश्यकताएं तो दूर, हालचाल भी नहीं पूछते थे। उनकी जरूरतों से उनके खर्चे बढ जाते थे। उन्हें मां-बाप की प्रापर्टी की चिंता थी, कि वह न कोई ले ले। माता-पिता किसी को न दे दें। वह तो इस बात का इंतजार कर रहे थे कि कब इन लोगों से छुटकारा मिलेगा। कितना घिनौना सच है, किन्तु यह एक कडवी सच्चाई है। माता-पिता को ईश्वर की दी हर संतान को समान मानना चाहिए, उसके लिए बेटे और बेटियां सभी बराबर हैं। अपने सत् कर्म ही हमारे मोक्ष का कारण होते हैं न कि बेटे।
किन्तु जो लडकियां उनका वंश नहीं चला सकती थीं वही उनका सहारा बनी हुई थीं। बेटियों को देखकर मां तो जैसे निहाल हो जाती थी। बापू को अपनी गलती का अहसास था। सोचते थे, यदि बेटे न ही होते तो अच्छा था। संतानों को परवरिश समान ही दी थी, संस्कार भी समान दिये थे, फिर यह अंतर क्यों? इस भूल के परिणाम इतने भयंकर होंगे कभी सोचा भी नहीं था। अहसास बेटियों में ही क्यों जिंदा रहता है, बेटों में क्यों नहीं?
‘शांति और सौहार्द में अग्रणी हैं बेटियां,
श्रृंगार सृष्टि की जननी हैं बेटियां।।’
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