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Vimla Sharma

वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ:...| Vakratuṇḍae mahākāya, sūrya kōṭi samaprabha...


विघ्नहारी मंगलहारी श्रीगणेश की महिमा अपरम्पार है। यह कलियुग है। इस युग में श्री गणेश और मां भगवती ही सर्व पूजनीय हैं और इनके पूजन से व्यक्ति को बड़ी ही सहजता से फल की प्राप्ति होती है। जीवन के हर क्षेत्र में गणपति विराजमान हैं। देवताओं के मूल प्रेरक यही हैं। शास्त्रों में भी कहा गया है कि गणपति सब देवताओं में अग्रणी हैं। उनके अलग-अलग नाम व अलग-अलग स्वरूप हैं, वास्तु में गणेशजी का बहुत महत्व है। गणेशजी को संपूर्ण वास्तु भी कहा गया है।


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वक्रतुण्‍ड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ:।

निर्विघ्‍नं कुरू मेदेव सर्व कार्येषु सर्वदा।।

सनातन धर्म में कोई भी शुभ कार्य या पूजा अर्चना से पहले उपरोक्‍त मंत्र अवश्‍य बोला जाता है, क्‍योंकि हिन्‍दू धर्म में कोई भी शुभ कार्य आरम्‍भ करने से पूर्व श्री गणेश जी का पूजन आवश्‍यक माना गया है। उन्‍हें विघ्‍नहर्ता व रिद्धि-सिद्धि का स्‍वामी कहा जाता है। इनके स्‍मरण, ध्‍यान, जप और आराधना से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है और जीवन में आ रही परेशानियों का विनाश होता है। वे शीघ्र प्रसन्‍न होने वाले बुद्धि के अधिष्‍ठात्रा और साक्षात प्रणव रूप हैं। प्रत्‍येक शुभ कार्य करने के पूर्व ‘श्री गणेशाय नम:’ का उच्‍चारण कर उनकी स्‍तुति में उपरोक्‍त मंत्र बोला जाता है।



श्री गणेश का पूजन करने से व्यक्ति के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। उसके मार्ग की सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। और बुद्धि प्रबल होती हैं।

विघ्नहारी मंगलहारी श्रीगणेश की महिमा अपरम्पार है। यह कलियुग है। इस युग में श्री गणेश और मां भगवती ही सर्व पूजनीय हैं और इनके पूजन से व्यक्ति को बड़ी ही सहजता से फल की प्राप्ति होती है।

जीवन के हर क्षेत्र में गणपति विराजमान हैं। देवताओं के मूल प्रेरक यही हैं। शास्त्रें में भी कहा गया है कि गणपति सब देवताओं में अग्रणी हैं। उनके अलग-अलग नाम व अलग-अलग स्वरूप हैं,

वास्तु में गणेशजी का बहुत महत्व है। गणेशजी को संपूर्ण वास्तु भी कहा गया है।



जल को जीवन कहा गया है। पृथ्वी पर 75 प्रतिशत ज।ल ही है। जीवन में 90 प्रतिशत जल की महत्वता है। अर्थात जीवन की उत्पत्ति का आधार जल ही है। हमारे यहां पंचदेवों की पूजा का विधान है। पंचदेवों की पूजा का रहस्य पंचतत्वों से जुड़ा हुआ है। ये पांच तत्व हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पंचतत्वों के अधिपति श्री गणेश ही हैं। पृथ्वी के अधिपति भगवान शंकर हैं, अग्नि की अधिपति मां दुर्गा हैं, आकाश तत्व के अधिपति भगवान विष्णु हैं, वायुतत्व के अधिपति भगवान सूर्य हैं।



गणेश जी विद्या के देवता भी हैं। साधना में उच्‍च स्‍तरीय दूरदर्शिता, उचित-अनुचित का ज्ञान, कर्तव्‍य–अकर्तव्‍य की पहचान, ये सभी गुण श्री गणेश जी में विद्यमान थे इसलिए विद्यार्थियों को भी श्री गणेश का पूजन, आराधना अवश्‍य करनी चाहिए।



पद्म पुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में जब यह प्रश्‍न उठा कि प्रथम पूज्‍य माना जाए तो समस्‍त देवतागण ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी ने कहा कि जो कोई संपूर्ण पृथ्‍वी की परिक्रमा सबसे पहले पूरी कर लेगा, उसे ही प्रथम पूजा जायेगा/ इस पर सभी देवतागण अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर परिक्रमा के लिए निकल पडे। गणेश जी का वाहन चूहा है और उनका शरीर स्‍थूल, तो ऐसे में वे परिक्रमा कैसे जीत पाते? इस समस्‍या का उपाय देवर्षि नारद जी ने निकाला। नारद जी ने श्री गणेश जी को सुझाव दिया कि ‘श्री राम’ संपूर्ण ब्रह्माण्‍ड में निहित हैं। इसलिए श्री गणेश जी ने भूमि पर ‘श्री राम’ लिखा और उसकी सात परिक्रमा पूरी की और सबसे पहले ब्रह्मा जी के पास पहुंच गये। तब ब्रह्माजी ने उन्‍हें पूज्‍य बताया।




शिवपुराण में एक अन्‍य कथा के अनुसार एक बार समस्‍त देवता भगवान शंकर के पास यह समस्‍या लेकर पहुंचे कि किस देवता को देवों का मुखिया चुना जाए। भगवान शिव ने यह प्रस्‍ताव रखा कि जो पहले पृथ्‍वी की परिक्रमा पूरी करेगा वही अग्रपूजा का अधि‍कारी और सभी देवताओं का स्‍वामी होगा। यहां भी वही समस्‍या थी कि गणेजी शरीर से स्‍थूल हैं और वाहन चूहा है तो जीतने का तो सवाल ही नहीं उठता। तब श्री गणेश जी ने अपनी बुद्धि और चातुर्य का उपयोग करते हुए, अपने माता-पिता शिव-पार्वती जी की तीन परिक्रमा पूर्ण की, और नतमस्‍तक होकर खडे हो गये। भगवान शिव ने प्रसन्‍न होकर कहा कि तुमसे बढकर संसार में अन्‍य कोई इतना चतुर नहीं है। माता-पिता की तीन परिक्रमा से तीनों लोकों की परिक्रमा का पूण्‍य प्राप्‍त होता है। जो पृथ्‍वी की परिक्रमा से भी बढकर है। इसलिए आज से जो मनुष्‍य किसी कार्य के शुभारम्‍भ से पहले तुम्‍हारा पूजन अवश्‍य करेगा उस कार्य में कोई बाधा नहीं आयेगी। तभी से श्रीगणेश जी को अग्रपूजनीय और समस्‍त देवताओं का स्‍वामी माना जाने लगा।



गणेश जी का पूजन कैसे किया जाता है?

गणेश जी को मोदक बहुत प्रिय हैं। इसके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी मानी जाती है। गोस्‍वामी तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में कहा है-

गाइए गनपति जगवंदन। संकर सुवन भवानी नंदन।।

रिद्धि-सिद्धि गज बदन विनायक। कृपा-सिंधु सुंदर सब लायक।।

मोदक प्रिय मुद मंगलदाता। विद्या वारिधि बुद्धि विधाता।।



महाराष्‍ट्र के भक्‍त आमतौर पर गणेश जी को मोदक ही चढाते हैं। मोदक मैदे, चीनी, मावा आदि से बनाये जाते हैं। मोदक का अर्थ है मोद यानि आनन्‍द और क का शाब्दिक अर्थ छोटा सा भाग, मानकर ही मोदक शब्‍द बना है। इसका संपूर्ण अर्थ है – हाथ में रखने मात्र से ही आनन्‍द की अनुभूति होना। ऐसे प्रसाद को श्री गणेश जी को अर्पित किया जाना ही सुख की अनुभूति होना स्‍वाभाविक है।



भगवान गणेशजी को दूर्वा, एक प्रकार की घास है। जो भगवान गणेश जी को पूरी श्रद्धा भाव से दूर्वा चढाता है वह कुबेर के समान हो जाता है।

गणपति अवर्वशीर्ष में लिखा है-

यो दूर्वाकुरैंर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति।

यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति स मेधावान भवति।।

यो मोदक सहस्रेण यजति स वांछित फलमवाप्राप्‍नोति।।

अर्थात्

जो भगवान गणेश को दूर्वा चढाता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजो यानि धान या लाई चढाता है वह यशस्‍वी, और मेधावी हो जाता है। जो एक हजार मोदकों का भोग भगवान गणेश को चढाता है वह मनोवांछित फल पाता है। उसकी सभी इच्‍छाएं स्‍वयं ही पूरी हो जाती हैं।



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