top of page
Vimla Sharma

वैदिक आश्रम व्यवस्था और जीवन | Vedic Ashram System and Life

Updated: Oct 29, 2022



संस्‍कारों के बीज बचपन में ही बोये जाते हैं। हम पाश्चात्य देशों की नकल करते हुए अपने देश की सभ्यता-संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। हमारे नैतिक मूल्य तो जैसे धूल चाट रहे हों। कुछ दशक पहले भारतीय पाठयक्रम मेंं नैतिक शिक्षा को भी शामिल किया जाता था, जिनमें नैतिक शिक्षा सेे संबंधित कहानियां होती थी जो बच्‍चों को नैतिक जिम्‍मेदारियों और शिक्षा से अवगत कराती थीं। लेकिन आधुनकिता की अंधी दौड में इस तरह की शिक्षा दी ही नहीं जाती। यह भी एक कारण हो सकता है कि भारत में वृद्धाश्रमों की संख्‍या लगातार बढती जा रही है। बदली सोच और नजरियेे के कारण आपसी संबंधों में गर्माहट समाप्‍त होती जा रही है। अब व्‍यक्तिगत रिश्‍ते भी मात्र औपचारिकता बनकर रह गये हैं। इन परिस्थितियों का जिम्‍मेदार कौन है? अब या तो हमें परिस्थितियों को यूं ही स्‍वीकार करना चाहिए या फिर वापिस अपनी संस्‍कृति को अपना चाहिए।

 


बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। उनमें संस्कारों के बीज बचपन में ही बोये जाते हैं। हम पाश्चात्य देशों की नकल करते हुए अपने देश की सभ्यता-संस्कृति को भुलाते जा रहे हैं। हमारे नैतिक मूल्य तो जैसे धूल चाट रहे हों। कांटेे-छुरी से खिलाने के चक्कर में हमारा वजूद कहीं खो गया है। घर की पार्टियों में माता-पिता कोने में बेगानों की तरह आते हैं और बदलते समय की चाल देखते रह जाते हैं। साड़ी-सूट की जगह अब जींस-ट्राउजर ने ले ली है। हिन्दी-संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी का बोलबाला है। घर के पूजा-पाठ अब आडंबर लगने लगे हैं। तीज-त्यौहारों की जगह अब क्लबों, डिस्को आदि ने ली है। हमारे नैतिक मूल्य तो जैसे धूल चाट रहे हों। कुछ दशक पहले भारतीय पाठयक्रम मेंं नैतिक शिक्षा को भी शामिल किया जाता था, जिनमें नैतिक शिक्षा सेे संबंधित कहानियां होती थी जो बच्‍चों को नैतिक जिम्‍मेदारियों और शिक्षा से अवगत कराती थीं। लेकिन आधुनकिता की अंधी दौड में इस तरह की शिक्षा दी ही नहीं जाती। यह भी एक कारण हो सकता है कि भारत में वृद्धाश्रमों की संख्‍या लगातार बढती जा रही है।



बदली सोच और नजरियेे के कारण आपसी संबंधों में गर्माहट समाप्‍त होती जा रही है। अब व्‍यक्तिगत रिश्‍ते भी मात्र औपचारिकता बनकर रह गये हैं। इन परिस्थितियों का जिम्‍मेदार कौन है? अब या तो हमें परिस्थितियों को यूं ही स्‍वीकार करना चाहिए या फिर वापिस अपनी संस्‍कृति को अपना चाहिए।



इन सब परिस्थितियों का जिम्मेदार कौन है?

इसमें दोष हम सबका ही है।

बच्‍चों को आधुनिकता की दौड में माता-पिता ने ही खडा किया है। साधारण स्‍कूलाेें में पढाने की बजाय काॅॅॅॅॅॅन्‍वेट स्‍कूल को अहमियत दी। उसमें पश्चिमी शिक्षा पर जोर दिया जाता है। वहां यह तो बताया या पढाया जाता है ईशु कौन थे उन्‍होंने क्‍या कुर्बानियांं दी, उन पर क्‍या अत्‍याचार हुए, बाइबल क्‍या है, किन्‍तुु भारतीय संस्‍कृति के बारे में न तो बताया जाता है और न ही पढाया जाता है। फिर हम बच्‍चों से उम्‍मीद करते हैं कि वह अपनी संस्‍कृृति को जानेेंं उसे समझें उसमें रूचि दिखाएं। वह भी तब, जब वह बडे हो चुके होते हैं और दूसरे माहौल में पूरी तरह ढल चुके होते हैं।

भारतीय संस्‍कृति में समाज और परिवार के नियम बहुत दूरदर्शिता के साथ बनाये गये हैं।

हमारे सनातन धर्म में इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर जीवन के चार पडावों के अनुसार आश्रम व्यवस्था की गई है।

समय के साथ व्यक्ति को बदलना चाहिए। सनातन धर्म में मुख्य रूप से चार आश्रम बताये गये हैं। जो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।


आश्रम व्यवस्था को जीवन या उम्र के चार हिस्सों में बांटा गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।


  • पहला विद्यार्थी जीवन

  • दूसरा दांपत्य या गृहस्थ जीवन

  • तीसरा शिक्षात्मक या आचार्य का जीवन और

  • चौथा संन्यासी का जीवन।


सनातन धर्म के अनुसार जीवन के चार चरणों को समय और आयु के अनुसार सभी को अपनाना और जीना चाहिए।



ब्रह्मचर्य आश्रम

अधिकतर लोग ‘ब्रह्मचर्य' का अर्थ केवल कामेन्द्री को साधना कहते हैं किन्तु ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। यदि केवल एक इंद्री को साधने भर से ‘ब्रह्मचाारी' नहीं होते।

सीधे सीधे शब्दों में ‘ब्रह्मचर्य' का अर्थ है ब्रह्म केे समान आचरण करने वाला। जो सबमें सम भाव रखते हुए सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करता है, उसे ‘ब्रह्मचर्य' कहा जाता है। जीवन में प्रत्येक बालक ‘ब्रह्मचारी ही होता है। वह जब तक सहज भाव से सभी को प्यार और अपनेपन से ही देखता है। वो कभी भी अपने माता/पिता जैसे बड़ों में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करता है। वही ब्रह्मचारी है।



गृहस्थ आश्रम

जब एक बच्चा सभी प्रकार का ऐच्छित ज्ञान एकत्र करके स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठित हो कर अपना परिवार बनाने की सोचता है, तो उसकी इस नयी जिम्मेदारी भरी व्यवस्था को 'गृहस्थ आश्रम' कहा जाता है।

गृहम स्थः इति गृहस्थं

अर्थात घर में रहने वाले को ही गृहस्थ कहा जाता है।

केवल घर में रहने भर का ही गृहस्थ नहीं कह सकते, अपितु घर की जिम्मेदारियों को उठाना और उनका भलीभांति पालन करना ही गृहस्थ जीवन या गृहस्थ आश्रम कहलाता है।



वानप्रस्थ आश्रम

जब घर की सभी जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए, समयानुसार जब बच्चे भी अपना घर बसा लें, तब उस व्यक्ति से उपेक्षा की जाती है कि वो एक कदम और आगे बढ़ें---।

यही है वानप्रस्थ आश्रम।

जीवन के इस चरण में यदि व्यक्ति अपने परिवार की जिम्मेदाि‍रियों को अच्छे से निभा चुका है और यदि वह परिवार से ऊपर उठ कर पूरे समाज के लिए कुछ करना चाहता है, और इसके लिए वो अपने घर को छोड़ कर समाजसेवा हेतु किसी अन्य स्थान, जहाँ वो सार्वजनिक रूप से समाज के लिए उपलब्ध हो, जाता है तो उसे वानप्रस्थी कहते हैं।

आदि काल में समाज/प्रकृति की सेवा के लिए लोग अधिकांश वन, जहां आश्रम इत्यादि होते थे, वहां जाते थे, इसलिए कुछ लोग वानप्रस्थ से अर्थ वन गमन से लेते हैं, जो कि सही नहीं है। आधुनिक युग में समाज की सेवा वन में रहकर नहीं की जा सकती।




संन्यास

यदि कोई व्यक्ति एक सीधा-सादा जीवन निर्वाह करने के स्थान पर परमब्रम्ह अर्थात मोक्ष प्राप्ति को ही अपना एक मात्र उद्देश्य बना लेता है। किन्तु आधुनिक समय में यह उचित नहीं होगा।

आज जीवन के किसी क्षेत्र में यह आश्रम व्‍यवस्‍था कहीं नजर नही आती। पुुरानेे समय में सभी बच्‍चे गुरूकुल में समय व्‍यतीत करते थे। आश्रम में राजा हो या रंक, सभी के बच्‍चे सभी समान थे। आश्रम में बच्‍चों को नैतिक शिक्षा के साथ ही अस्‍त्र-शस्‍त्र की शिक्षा दी जाती थी। गुरूकुल में सभी बच्‍चेे समान रूप से कार्य करते थे। गुरूकुल की देखभाल बच्‍चों की ही जिम्‍मेदारी होती थी। इससे बच्‍चे आत्‍मनिर्भर और मेहनत करना सीखते थे। गुरूकुल का जीवन कठिन था। बचपन में दिये संस्‍कार पूरे जीवन के लिए नींव का कार्य करते हैं। किन्‍तु आज परिस्थितियां भिन्‍न हैं। सभी वर्गों के बच्‍चों के लिए स्‍कूल व व्‍यवस्‍थाएं अलग-अलग हैं। गरीब का बच्‍चा सरकारी स्‍कूल में पढता है, उच्‍च वर्ग के स्‍कूल, स्‍कूल कम फाइवस्‍टार होटल्‍स अधिक लगते हैैं। बच्‍चों के हर कार्य के लिए एक सरवेंट होता है। बच्‍चों को अध्‍यापक डांट नहीं सकते। बच्‍चों को बचपन से ही भेदभाव, ऊंच-नीच की शिक्षा दी जाती है। अध्‍यापक और विद्यार्थी की परिभाषा ही बदल दी गयी हैैै। इन फाइव स्‍टार स्‍कलों में भारतीय संस्‍कारों की झलक तक देेेेखने को नहीं मिलती। माता-पिता भी बडे गर्व के साथ समाज में बताते हैं कि हमारा बच्‍चा कितने बडे स्‍कूल में पढ रहा है उसकी फीस कितनी जा रहीं है। वहां क्‍या पढाया जा रहा है, क्‍या संस्‍कार दिये जा रहे हैं, इन सबकी जानकारी कम ही माता-पिता को होती है।




जब बच्‍चा हाॅॅस्‍टल या अपनी पढाई पूरी करके घर वापिस आता है तो वह नये ही माहाैैैल में ढला हुआ होता हैैै। उसे भारतीय रीति-रिवाज मानने में रूढिवादिता महसूस होती है। उसका मानसिक झुकाव, सोच, रूचि, सभी कुछ पश्चिमी हो जाती है। ऐसे कई उदाहरण हमें आस-पास देखने को मिल जायेंगे। समय के साथ बदलना गलत नहीं है किन्‍तु क्‍या सही है क्‍या नहीं, यह हमें हमें ही तय करना है।



यही कारण है कि आज जीवन का हर पडाव एक चुनौती बना हुआ है। जिसमें वृद्धावस्‍था एक चुनौती से कम नहीं। वृद्धावस्‍था की चुनौतियों का कैसे सामना किया जाये इसकी तैयारी हमें आज से ही करनी चाहिए।

युवावस्‍था में हम बच्‍चों की सोच और नजरिया तो नहीं बदल सकते, किन्‍तु समय की मांग और परिस्थि‍तियों के अनुसार स्‍वयं को ही बदलने का प्रयास करना चाहिए।



जिंदगी से हार मानना भी तो कायरता ही होगी। जब आंख खुले तभी सवेरा समझें। घर के बुजुर्ग अपने आत्मबल के बल पर जिंदगी की इस चुनौती को स्‍वीकारें। शिकायतों और परेशानियों की लिस्ट बनाने की बजाय परिस्थितियों को बदलने की चाह करें। हम भी आने वाले वक्त के साथ बदलें और बच्चों का भविष्य प्लान करते समय अपना भविष्य भी हम स्वयं ही तैयार करें। बच्‍चों में बचपन से ही भारतीय और वैदिक संस्‍कार रोपित करें, जो बच्‍चों के लिए एक प्रकार से कवच का कार्य करें। वृद्धावस्‍था में आप उन कार्यों को करें जिसे भागती हुई जिंदगी में कहीं पीछे छोड़ आये थे उन्हें फिर से जीवित करें और जुट जाएं उसे पूरा करने में। फिर देखिए जीवन की इस पारी में भी कैसे धुंआधार बैटिंग कर दूसरों की प्रेरणा बन सकते हैं। वृद्धावस्था में समय की कोई कमी नहीं होती। खाली समय बैठने से दिमाग में कई तरह की बातें आती हैं। स्वयं को व्यस्त रखें।



'अभी तो मैं जवान हूं', यह कहावत इन शख्सियतों पर बिल्कुल ही सार्थक साबित होती है। जिन महान लोगों का हम यहां जिक्र करने वाले हैं उन्होंने अपनी बढ़ी उम्र को अपनी हम्मत और जज्बे से उसे हरा दिया है। इन लोगों की उम्र भले ही 70 पार हो चुकी हो किन्तु इनमें जिंदगी को लेकर हिम्मत और जज्बा 17 की उम्र के लोगों से भी अधिक है। यहां हम कुछ शानदार बुर्जुगोें का जिक्र करेंगे जिनके बारे में जानकर आप दांतों तले उंगली दबाये बिना नहीं रह सकेंगे।



डॉ. पद्मावती, उम्र 103

डॉ. पद्मावती जी का जन्म 20 जून 1917 को म्यांमार में हुआ। इनके पिता पेशे से वकील थे। जो कि उस समय रंगून में रहते थे। यहां ही पद्मावती जी ने एमबीबीएस की पढ़ाई की। फिर लंदन में पढ़ाई के बाद कार्डियॉलाजिस्ट बनीं। वह देश की पहली कार्डियॉलाजिस्ट थींं। आज के समय में कार्डियॉलाजिस्ट बनना इतना मुश्किल नहीं है जितना कि 70 साल पहले था।

1953 में वह स्वदेश लौटीं और लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, दिल्ली से बतौर लेक्चरर करियर शुरू किया। 1978 में वह मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज, जी-बी-पंत हॉस्पिटल और लेडी इर्विन मेडिकल कॉलेज से बतौर डीन रिटायर हुईं। फिर उन्होंने 1981 में नेशनल हार्ट इस्टिट्यूट गठित किया।



आज 102 की उम्र में भी वह 12 घंटे मरीजों का इलाज करती थींं। आज भी वह देश में बढ़ते दिल के मरीजों की संख्या को लेकर चिंतित हो जाती थींं। डॉ. पद्मावती जी का कहना था कि हमें रोजाना एक छोटी चम्मच नमक (2-3 ग्रा-) से अधिक नहीं खाना चाहिए। दूसरा खतरे की घंटी शुगर है। रोज आधा घंटे की एक्सरसाइज अवश्य करें इससे 30 प्रतिशत दिल की समस्याएं कम हो जाती हैं। वह कहती हैं कि ‘नमक-चीनी कम, एक्सरसाइज करो ज्यादा’ यह नारा बुलंद करना होगा।


जिस उम्र में इंसान हारने लगता है, चलना-फिरना भी मुश्किल होता है उस उम्र में यदि कोई महिला यह कहे कि मुझे एथेलिटिक्स बनना है तो पहले तो इस बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा, लेकिन यह सच है। 93 उम्र में एथेलिटिक्स बनने का इरादा किया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनके इस कदम में साथ उनका पूरा सहयोग और साथ दिया उनके बेटे गुरुदेव सिंह जी ने। वह स्वयं एक कोच हैं। वह ही अपनी मां की पूरी डाइट और प्रैक्टिस का ध्यान रखते थे। विदेशों में प्रतियोगिताओं के दौरान भी उन्हें अपने साथ ही ले जाते थे।



मां के जज़्बे और बेटे की मेहनत के कारण 102 वर्ष की उम्र में भी वह आज दौड़ रही हैं। गोल्ड मेडलिस्ट हैं। इन्होंने हाल ही में 2018 में वर्ल्ड मास्टर एथेलिटिक्स-2018 में 200 मीटर रेस में गोल्ड मेडल जीता है। स्पेन में आयोजित इस चैंपियनशिप में मान कौर ने प्लस 100 विमिंस कैटेगरी में महज 3 मिनट, 14 सेकण्ड में रेस जीत कर गोल्ड मेडल जीता। ऐसी अनेकों प्रतियोगिताओं में भाग लेकर वह गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं। मान कौर कहती हैं कि मैं और जीतना चाहती हूं। जीतने के बाद मुझे खुशी मिलती है। यूथ और महिलाओं के लिए मान कौर का मंत्र है कि ‘हर किसी को अच्छा खाना चाहिए और एक्सरसाइज करनी चाहिए। जंक फूड से दूर रहना चाहिए और अपने से बड़ों का आदर अवश्य करना चाहिए।’




मदर टेरेसा

इस प्रकार ऐसे कई कार्य हैं जो आप कर सकते हैं। अब सुविधाएं पहले से अधिक और आसानी से उपलब्ध हैं। आप घर बैठे कोई भी कार्य कर सकते हैं, किसी से भी जुड़ सकते हैं किसी के पास भी अपनी बात पहुंचा सकते हैं। किसी से भी सलाह ले सकते हैं या सलाह दे सकते हैं। उदाहरण के लिए देश की संस्कृति को बनाये रखने के लिए अपने हम उम्र साथियों के साथ नये-नये अभियान या कार्यक्रम बनायें। युवा पीढ़ी में अपने ज्ञान की ज्योति अपने अनुभव से जलायें। जो समय के चलते शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाये, उन्हें शिक्षित करें। भटके हुए लोगों को नई राह दिखाएं। नेत्रहीनों और बेसहारों की लाठी बनें। फिर देखिए हमारे एक कदम बढ़ाने पर काफिला जुड़ता चला जाएगा। आप भी स्वयं में यह बदलाव पाकर प्रसन्न होंगे। आप मानें या मानें किन्तु सभी बच्चे यही चाहते हैं कि हमारे माता-पिता सदैव एक्टिव रहें, समय के साथ बदलें। इसलिए मेरी सभी निवेदन हैं कि बदलते समय के साथ अपनी सोच का दायरा बदलें। और बन जाएं जिंदा दिल।


मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।




Comments


Post: Blog2_Post
bottom of page