दुर्गासप्तसती में कहा गया है कि ‘आराधिता सैव नृणां भोस्वर्गापवर्गदा।‘ अर्थात आराधना किए जाने पर आदि शक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग अपवर्ग देने वाली है। ‘श्रीयंत्र’ की उत्पत्ति के संबंध में यह भी कहा गया है कि एक बार कैलाश मानसरोवर के पास आदि शंकराचार्य ने कठोर तप करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। जब भगवान शिव ने वर मांगने को कहा तो आदि शंकराचार्य ने विश्व कल्याण का उपाय पूछा। भगवान शंकर ने शंकराचार्य को साक्षात लक्ष्मी रूप स्वरूप ‘श्रीयंत्र’ तथा ‘श्री सूक्त’ के मंत्र प्रदान किये।
यंत्रों में सबसे अधिक चमत्कारिक और शीघ्र प्रभाव दिखाने वाला सर्वश्रेष्ठ यंत्र ‘श्री यंत्र’ को माना गया है। कलियुग में ‘श्रीयंत्र’ कामधेनु के समान है। उपासना सिद्ध होने पर सभी प्रकार की श्री अर्थात चारों पुरूषार्थों की प्राप्ति होती है। इसलिए भी इसे ‘श्रीयंत्र’ कहते हैं।
श्रीयंत्र में ‘श्री’ शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है- ‘श्रेयते’ या सा ‘श्री’ अर्थात जो श्रमण की जाए वही श्री है। जो नित्य परब्रह्मा का आश्रयण करती है, वह ‘श्री’ है। जिस प्रकार प्रकाश या गर्मी में अभिन्नता रहती है, उसी प्रकार ब्रह्मा और शक्ति भी दोनों अभिन्न रहते हैं। ‘श्रीयंत्र’ में पांच त्रिकोण की नोंक की ओर, और चार त्रिकोण की नोंक नीचे की ओर है। इन्हें भगवती शक्ति और शिवशक्ति भी कहा जाता है। नीचे की ओर नोंक वाले त्रिकोण कल्याणकारी शिव के प्रतीक हैं। इन्हें ‘नीलकंठ’ भी कहते हैं। ‘उर्ध्वमुखी’ पांच त्रिकोण- पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच तन्मात्र और पांच महाभूतों के प्रतीक हैं। शरीर में यह अस्थि, मेदा, मांस, अवृक और त्वचा के रूप में विद्यमान हैं। अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्जा की द्योतक है और ब्रह्माण्ड में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं। पांच उर्ध्वमुखी और चार अधोमुखी त्रिकोण नौ (नौ) मूल प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस प्रकार ‘श्रीयंत्र’ में एक आठ दल वाला अष्टदल और एक अन्य षोड्शदल कमल है। दोनों कमलों की प्रत्येक पंखुड़ी में देवियां विराजमान हैं। दोनों कमल चक्रों के बाहर चौकोर भूपुर चतुर चक्र है। उसके चार दिशाओं में चार दरवाजे हैं। चारों दरवाजों और चारों कोनों में देवियां हैं। प्रत्येक स्थान पर दर्शायी गयी देवियों के अलावा प्रत्येक चक्र में उसकी एक अधिष्ठात्री देवी है। मध्य बिन्दु में सर्वश्रेष्ठ महाशक्ति ‘श्रीमहात्रिपुर सुंदरी देवी’ विराजमान हैं। भगवान शंकर के मतानुसार सृष्टि से उर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नि तत्व के वृत, वायु तत्व के बिन्दु, आकाश, और भूपुर पृथ्वी का प्रतीक माना जाता है।
वेदों के अनुसार ‘श्रीयंत्र’ में 33 करोड देवताओं का वास है। वास्तुदोष निवारण में इस यंत्र का कोई सानी नहीं है। इसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एवं विकास का प्रदर्शन किया गया है।
दुर्गासप्तसती में कहा गया है कि ‘आराधिता सैव नृणां भोस्वर्गापवर्गदा।‘ अर्थात आराधना किए जाने पर आदि शक्ति मनुष्यों को सुख, भोग, स्वर्ग अपवर्ग देने वाली है। ‘श्रीयंत्र’ की उत्पत्ति के संबंध में यह भी कहा गया है कि एक बार कैलाश मानसरोवर के पास आदि शंकराचार्य ने कठोर तप करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया। जब भगवान शिव ने वर मांगने को कहा तो आदि शंकराचार्य ने विश्व कल्याण का उपाय पूछा। भगवान शंकर ने शंकराचार्य को साक्षात लक्ष्मी रूप स्वरूप ‘श्रीयंत्र’ तथा ‘श्री सूक्त’ के मंत्र प्रदान किये।
‘श्रीयंत्र’ परमब्रह्म स्वरूपिणी आदि प्रकृतिमयी देवी भगवती महात्रिपुर सुंदरी का आराधना स्थल है, क्योंकि यह चक्र ही उनका निवास एवं रथ है। उनका सूक्ष्म शरीर व प्रतीक रूप है।
यह यंत्र अर्थात ‘श्रीयंत्र’ भगवती त्रिपुर सुंदरी का है। वेदों में इसे सर्वश्रेष्ठ यंत्र कहा गया है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में कहा गया है कि शक्ति अपने संकल्प के बल से ही विश्व ब्रह्माण्ड का रूप धारण करती है और स्वयं के स्वरूप को निहारती है। इस यंत्र में ईश्वरी! त्रिपुर सुंदरी का आधार ब्रह्माण्डाकार है। इसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास का प्रदर्शन किया गया है।
श्री यंत्र की शास्त्रीय पूजन विधि-
यहां पर संक्षिप्त सरल पूजन विधि बताई गई है। नित्य स्नान पूजा, पाठोपरांत शुद्ध वस्त्र धारण करें। श्री यंत्र को लाल वस्त्र (बिना सिले हुए) एवं मौली में लपेट कर, लाल चंदन का तिलक लगाकर, श्री गंगा जल द्वारा
‘पवित्रपवित्रे-वा’ मंत्र द्वारा शुद्धि कृत आसन पर यंत्र को उत्तर दिशा में स्थापित करके धूप-दीप, अगरबत्ती द्वारा वातावरण को पवित्र करके यंत्र के सम्मुख नीचे कंबल या कुशा का आसन) पर पूर्वाभिमुख होकर बैठें और निम्न मंत्र पढ़ते हुए यंत्र को प्रणाम करें तथा कलश स्थापित करें।
‘दिव्यां परां सुधवलां चक्रयातां, मूलादि बिन्दुपरिपूर्णा कलात्मरूपाम्।’
‘स्थित्यात्मिकां शरधनुसृणि पाशहस्तां, श्री चक्रतां सतंत नाममि।।’
‘श्री यंत्र’ अधिष्ठात्री देवी महात्रिपुरसुंदरी हैं। अतः यंत्र को प्रणाम करने के बाद निम्न मंत्र द्वारा देवी का ध्यान करें।
‘बालार्कुयुत तैजसं त्रिनयनां, रक्ताम्बरोलहासिनी। नानालंकृति राजमान वयुषं बालेन्दु युत शेखरम्।।
हस्तैरिक्षु धनुः सृणिं सुरशरं, पाशं मुदा विभ्रतीम। श्री चक्र स्थित सुन्दरी, त्रिजगतामाताधारभूतां भजे।।’
इसके पश्चात श्रीयंत्र को पंचामृत या गंगाजल से स्नान कराकर लाल चंदन, अक्षत, रोली, लाल पुष्प, धूप-दीप, नैवेद्यादि अर्पित करते हुए पूजा करें। फिर कलश पर शुद्ध घी का दीपक जलाकर यथाशक्ति संख्या में रुद्राक्ष की माला से बिना क्रम तोड़े ‘ॐ श्री ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्मयै नमः।’ या ‘श्री ऊं महालक्ष्मयै नमः’ मंत्र का प्रतिदिन जाप करें।
विधिवत प्राणप्रतिष्ठा ‘श्रीयंत्र’ की पूजा उपासना से सभी सुख, मोक्ष प्राप्त होते हैं। दीपावली, धनतेरस, दशहरा, अक्षयतृतीया, वर्ष प्रतिप्रदा आदि ‘श्रीयंत्र’ की स्थापना के श्रेष्ठ मुहुर्त होते हैं। इनकी पूजा साधना करते समय मुख पूर्व की ओर रखना चाहिए और मन में पूर्ण श्रद्धा का भाव रखना चाहिए।
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