‘श्री’ का अर्थ है- सुकरता, प्रमुखता, श्रेष्ठता, वैभव, कीर्ति, समृद्धि, पोषण, सम्पत्ति आदि। ‘लक्ष्म’ शब्द समृद्धि का प्रतीक है। वेदों में समृद्धि के लिए जो भी प्रतीक प्रयुक्त होते हैं वह उत्तम भविष्य और सौभाग्य के लिए प्रयोग किये जाते हैं। एक ओर जहां लक्ष्मी संपन्नता का प्रतीक हैं वहीं दूसरी ओर लक्ष्मी समृद्धि और चेतन की सार तत्व है। समय के साथ यही सार तत्व लक्ष्मी के रूप में माना जाने लगा है। व्यक्ति अपने जीवन में सुख-संपन्नता, वैभव और ऐश्वर्य लाने के लिए श्री लक्ष्मी के प्रतीक चिन्ह ‘श्री’ की अपने सामर्थ्य अनुसार पूजा-अर्चना करता है।
लक्ष्मी जी का दूसरा नाम ‘श्री’ है। लक्ष्मी जी की आराधना के लिए वैदिक मंंत्रों में श्री सूक्त का उपयोग किया जाता है। वह श्री सूक्त के नम से जाना जाता है। निश्चय ही ‘लक्ष्मी’ नाम शताब्दियों से लोकप्रिय है। ‘श्री’ का अर्थ है- सुकरता, प्रमुखता, श्रेष्ठता, वैभव, कीर्ति, समृद्धि, पोषण, सम्पत्ति आदि। ‘लक्ष्म’ शब्द समृद्धि का प्रतीक है। वेदों में समृद्धि के लिए जो भी प्रतीक प्रयुक्त होते हैं वह उत्तम भविष्य और सौभाग्य के लिए प्रयोग किये जाते हैं। एक ओर जहां लक्ष्मी संपन्नता का प्रतीक हैं वहीं दूसरी ओर लक्ष्मी समृद्धि और चेतन की सार तत्व है। समय के साथ यही सार तत्व लक्ष्मी के रूप में माना जाने लगा है। व्यक्ति अपने जीवन में सुख-संपन्नता, वैभव और ऐश्वर्य लाने के लिए श्री लक्ष्मी के प्रतीक चिन्ह ‘श्री’ की अपने सामर्थ्य अनुसार पूजा-अर्चना करता है
‘श्री’ यंत्र के रूप में विद्मान है। जिसे सभी श्री यंत्र के नाम से जानते हैं। दीपावली पर ‘श्रीयंत्र’ के पूजन का विशेष महत्व है। वेदों में इसे सर्वश्रेष्ठ यंत्र कहा गया है।
‘श्रीयंत्र’ में 'श्री' की व्याख्या इस प्रकार की गई है। ‘श्रेयते’ या सा ‘श्री’ अर्थात जो श्रमण की जाए वही ‘श्री’ हैं। जो हर पल नित्य परब्रह्म का आश्रयण करती हैं। वही ‘श्री’ हैं। जगत्गुरू स्वामी शंकराचार्य जी के अनुसार ‘यदि शिव, शक्ति के साथ होते हैं तो वह सामर्थ्यवान होते हैं। शक्ति से रहित हुआ देव स्पन्दन करने योग्य शुभ फल देने वाला नहीं होता।
शिवः शक्तया युक्तो तदि भवति शक्तः प्रभवितुम्।
न चेदेवं देवी न खलु कुथलः स्पन्दितुमपि।।
जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों से जो पुरातन हैं वही त्रिपुरा हैं। ‘श्री’ हैं, लक्ष्मी हैं।’
‘श्रीयंत्र’ में पांच पांच त्रिकोण की नोंक ऊपर की ओर, और चार त्रिकोण की नोंक नीचे की ओर है। ऊपर की ओर के त्रिकोण को भगवती शक्ति का रूप माना जाता है और नीचे की ओर के त्रिकोण कल्याणकारी भगवान शिव के प्रतीक हैैंं। इनमें पांच त्रिकोण, पांच प्राण, पांच ज्ञानेद्रियां, पांच तन्मात्र और पांच महाभूतों के प्रतीक हैं। शरीर में यह अस्थि, मेदा, मांस, अवृक और त्वचा के रूप में विद्यमान हैं।
भगवान शंकर के अनुसार सृष्टि से उर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नि तत्व के वृत, वायु तत्व के, बिन्दु, आकाश का, और भूपुर पृथ्वी का प्रतीक माना जाता है।
इस प्रकार बिन्दु छोटे-बडे़ सभी मिलाकर नौ प्रमुख त्रिकोण, और इन 9 त्रिकोणों से बने 43 त्रिकोण, दो कमल, और भूपुर चतुरस्त्र कुल 9 चक्रों का यह अद्भुत ‘श्रीयंत्र’ बनता है। यह श्री चक्र अखिल ब्रह्माण्ड का आकार बताता है। इतना ही नहीं मनुष्य के शरीर में जो नौ चक्र हैं, उनके साथ भी इनकी तुलना की जाती है। इस यंत्र के ध्यान से अंड, पिण्ड और ब्रह्माण्ड की भावना जागृत होती है। सभी देवी-देवताओं के यंत्र में देवी त्रिपुरा का ‘श्रीयंत्र’ सर्वश्रेष्ठ है। वैसे तो ‘श्रीयंत्र’ की स्थापना किसी भी शुभ मुहुर्त में की जा सकती है किन्तु ‘श्री’ का प्रतीक हैं और दीपावली पर श्री लक्ष्मी पूजन का विशेष महत्व है इसलिए दीपावली पर ‘श्रीयंत्र’ की स्थापना से इसका सकारात्मक प्रभाव कई गुना मिलने की संभावना बढ जाती है। जीवन में सुख-समृद्धि और वैभव प्राप्त करने के लिए दीपावली पर ‘श्रीयंत्र’ की स्थापना अवश्य करनी चाहिए।
यह विधिवत् रूप से तैयार किये जाते हैं। ‘श्रीयंत्र’ चांदी, ग्लेज पत्र, तांबे की धातु में पूजा से संबंधित दुकानों से आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं।
‘श्रीयंत्र’ स्थापना की पूजन विधिः
हम यहां पर पूजन की संक्षिप्त और सरल विधि बतायेंगे जिसे आप आसानी से कर सकें और लाभ उठा सकें।
सर्वप्रथम ‘श्रीयंत्र’ की स्थापना से पूर्व शुभ मुहुर्त के बारे में किसी से जानेें लें। जैसे अभिजीत मुहुर्त सर्वसिद्धि मुहुर्त आदि।
जिस दिन ‘श्रीयंत्र’ की स्थापना करनी है उस दिन सर्वप्रथम स्नान आदि करें।
स्वच्छ वस्त्र पहनें।
पूर्वाभिमुख होकर स्वच्छ आसन पर बैठें।
‘श्रीयंत्र’ को पंचामृत से स्नान करायें। गंगा जल से स्नान करायें।
एक चौकी या तांबे की थाली में लाल स्वच्छ (बिना सिलाई किया)वस्त्र बिछायें।
लाल स्वच्छ वस्त्र पर मौली अथवा कलावा लपेटकर ‘श्रीयंत्र’ को स्थापित करें।
पुनः श्री गंगा जल द्वारा ‘¬ पवित्रापवित्रो -वा’ मंत्र बोलते हुए छिड़कें।
लाल चंदन का तिलक लगायें।
‘श्रीयंत्र’ के सम्मुख धूप-दीप, अगरबत्ती जलायें तथा वातावरण को पवित्र करें।
निम्न मंत्र का जाप करते हुए ‘श्रीयंत्र’ को प्रणाम करें तथा कलश की स्थापना करें
‘दिव्यां परां सुधवलां चक्रयातां, मूलादि बिन्दुपरिपूर्णा कलात्मरूपाम्।’
‘स्थित्यात्मिकां शरधनुसृणि पाशहस्तां, श्री चक्रतां सततं नमामि।।’
तत्पश्चात् निम्नलिखित मंत्र का जाप करते हुए ‘श्रीयंत्र’ की अधिष्ठात्री देवी महात्रिपुरासुंदरी का ध्यान करें। मन ही प्रणाम करें।
मंत्रः
बालाकृर्युत तैजसं त्रिनयनां, रक्ताम्बरोलहासिन।
नानालंकृति राजमान वयुषं बालेन्दु युत शेखरम।।
हस्तैरिक्षु धनुः सृणिं सुरशरं, पाशं मुदा विभ्रतीम।
श्री चक्र स्थित सुन्दरी, त्रिजगतामाधारभूतां भजे।।
इसके पश्चात् ‘श्रीयंत्र’ पर पुष्प अर्पित करें।
रोली, अक्षत, नैवेद्यादि अर्पित कर पूजा करें।
कलश पर शुद्ध घी कर दीपक जलाकर यथाशक्ति संख्या मेें मंत्रें का जाप करें।
मंत्र जाप के लिए रूद्राक्ष या लाल मूंगे की माला श्रेष्ठ रहती है।
कोई भी मंत्र अपनी सामर्थ्यनुसार प्रतिदिन एक निश्चित समय पर बिना क्रम तोडे़ संकल्प पूर्वक करें।
‘श्रीयंत्र’ के सिद्ध होते ही आपको परिवर्तन महसूस होने लगेगा।
धन आगमन के सभी रास्ते खुल जायेंगे। आपके कारोबार में बरकत होगी। धन लाभ होंगे।
निम्न मंत्र हैं जिनका आप ‘श्रीयंत्र’ की सिद्धि के लिए अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं।
‘श्रीं’ ह्रीं महालक्ष्मयै नमः।
‘श्रीं’ ह्रीं क्लीं श्री महालक्ष्म्यै नमः।
‘श्रीं’ ह्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः।
उपरोक्त मंत्रें में से किसी एक मंत्र का जाप करें।
सिद्धि व पूजन के पश्चात् ‘श्रीयंत्र’ को अपने निवास स्थान में, व्यवसायिक स्थान स्थान को स्वच्छ करके रखें। और नियमित रूप से ध्यान व पूजन करें।
नोटः ‘श्रीयंत्र’ की स्थापना आप धनतेरस और दीपावली के दिन भी कर सकते हैं।
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