समाचार पत्राेेें में आये दिन बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं सुनने को मिल जाती हैं। निर्भया के केस ने तो सभी को झकझोर कर रख दिया है। सभी उनके गुनहगारों की फांसी का इंतजार कर रहे हैं। इस तरह के केसों का मुख्य कारण है कि समाज में लगातार बच्चों के विचार दूषित हो रहे हैं उन्हें माता-पिता ही इससे बचा सकतेे हैं। दूषित विचारों से बचाने के लिए मां को अपने बच्चों को संस्कार रूपी कवच पहनाने चाहिये। बच्चों को अच्छा खान-पान देना, या बच्चों का पेट भरना, शरीर ढकना ही माता-पिता का फर्ज नहीं है। यदि बच्चों को अच्छे संस्कार बचपन से ही रोपित कर दिये जायें तो निर्भया के दोषियों से संबंधित परिस्थितियों से काफी हद तक बचा जा सकता है। एक नारी/स्त्री/औरत ही है जो समाज की परिस्थितियों को बदल सकती है। वही एक सभ्य समाज का निर्माण कर सकती है।
आज नहीं तो कल, निर्भया के दोषियों को फांसी की सजा दी जायेगी। गुनाहगारों को अपने किये की सजा मिल ही जायेगी। क्या फांसी देकर कानून उन्हें वास्तव में सजा दे पायेगा। वह दर्द और जख्म दे पायेगा जो इन जैसे दरिंदों ने न जाने कितनी दूधमुंही बच्चियों, मासूमों और निर्भयाओं को दिये हैं। शायद नहीं। कुछ बच्चियों को तो मालूम ही नहीं होता कि उनके साथ क्या हुआ है। यदि किसी प्रकार जान बच जाती है तो जिंदगी का अंधकार उन्हें हमेशा के लिए घेर लेता है।
गुनाह इन जैसे दरिंदे करते हैं किन्तु इनके किये की सजा, परोक्ष और अपरोक्ष रूप से अन्य लोगों को भी मिलती है। निर्भया के केस में दोनों ओर के परिवार हैं जो पिछले 7 वर्षों से इस गुनाह में शामिल न होते हुए भी सजा पा रहे हैं।
अब सवाल पैदा होता है कि किसी भी गुनाहगार को सजा क्यों दी जाती है? इसका शायद एक ही जवाब है कि समाज में हो रहे कृत्यों को कम किया जा सके। किन्तु शायद ऐसा बहुत ही कम होता है, क्योंंकि यदि ऐसा होता तो आज जेलों में कैदियों की संख्या कम हो जाती। अलग-अलग केसों में भारत की सभी जेलें भरी पड़ी हैं। कुछ केसों में दोषी जमानत पर रिहा हो जाते हैं तो वह समाज में पुनः आकर समाज को, अपने परिवार को अपने कारनामों से कलंकित करते हैं। कभी महिलाओं पर एसिड अटैक कर दिया जाता है, कभी अपने साथ किये गये दुर्व्यवहार की पुलिस में शिकायत करने पर जिंदा जला दिया जाता है। इन सब घटनाओं को देखकर बिल्कुल भी नहीं लगता कि किसी को भी कानून का डर है।
दूसरी ओर गुनाहगारों का बार-बार राष्ट्रपति के पास दया याचिका देना या कानूनी की पेचीदकियों का लाभ उठाने की कोशिश करना, साफ जाहिर करता है कि ऐसे लोगों को अपने किये पर जरा भी अफसोस या शर्मिंदगी नहीं है। ऐसे दरिंदे, दूसरों की जान की कीमत नहीं समझते किन्तु अपनी जान बचाने के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। कभी अपने बूढ़े माता-पिता या गरीबी की दुहाई देते हैं तो कभी अन्य बहाना तलाशते हैं। ऐसे लोग समाज के लिए कोढ़ हैं। इसलिए समाज के उस हिस्से को काटना ही बेहतर है।
समाज से यह बुराइयां कैसे जाएगी? एक सभ्य समाज कैसे बनेगा? क्या सजा देना मात्र ही एक इलाज है?
नहीं बिल्कुल नहीं।
भारतीय समाज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है वह बहुत ही दयनीय है। अधिकतर हर वर्ग के बच्चे अपनी संस्कृति को भुला चुके हैं। तकनीकि का उपयोग की बजाय दुप्रयोग अधिक हो रहा है। गुनाह का स्तर गरीबी या अमीरी देखकर नहीं आंका जाता और न ही अच्छे संस्कार किसी बाजार में मिलते हैं कि आप यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच जायें कि हम गरीब हैं इसलिए अपने बच्चों को अच्छा इंसान नहीं बना सके। बच्चों को अच्छे संस्कार देने में या सभ्य बनाने में कुछ भी खर्च नहीं होता। तो यह प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि गुनाहगार/रेपिस्ट गरीब है, इसके घर में कमाने वाला कोई नहीं है, इसलिए इसके गुनाहों को माफ कर दिया जाये। ये परिस्थितियां इसलिए पैदा हो रही हैं क्योंकि माता-पिता अपना फर्ज नहीं निभा पा रहे हैं। बच्चों को समय नहीं दे रहे हैं। निर्भया की मौत के बाद भी सजा औरत को ही मिल रही है, एक मां अपनी बच्ची को खो चुकी है और दूसरी मांए अपने बच्चों को खोने के डर से दिन प्रति दिन सजा भुगत रही हैं। बच्चों को खोने का दर्द क्या होता है यह तो केवल मां ही जानती है। मां के दुख की व्याख्या नहीं की जा सकती?
समाज में लगातार बच्चों के विचार दूषित हो रहे हैं उन्हें माता-पिता ही इससे बचा सकते हैं। दूषित विचारों से बचाने के लिए एक मां को अपने बच्चों को संस्कार रूपी कवच पहनानाा चाहिये। बच्चों को अच्छा खान-पान देना या बच्चों का पेट भरना, शरीर ढकना ही माता-पिता का फर्ज नहीं है। यदि बच्चों में अच्छे संस्कार बचपन से ही रोपित कर दिये जायें तो निर्भया के दोषियों से संबंधित परिस्थितियों से काफी हद तक बचा जा सकता है। एक नारी/स्त्री/औरत ही है जो समाज की परिस्थितियों को बदल सकती है। वही एक सभ्य समाज का निर्माण कर सकती है।
हमारी संस्कृति में 16 संस्कारों का विधान है। कुछ संस्कार तो जन्म से पहले ही शिशु में रोपित कर दिये जाते हैं। जिन्हें पुंसवन संस्कार भी कहते हैं। इस प्रकार के संस्कार शिशु की जैनेटिक कमियों या बुराइयों से रक्षा करते हैं। बच्चों में अच्छे संस्कार जन्म से पहले और जन्म के बाद संस्कार रोपित करने का विधान है। यदि ऐसा किया जाता है तो समाज से इस तरह की बुराइयों को काफी हद तक दूर किया जा सकता है। आपने भक्त प्रहृलाद की कथा तो सुनी ही होगी। प्रहृलाद राक्षस वंश में पैदा हुए थे किन्तु उनकी मां को सही समय पर प्रहृलाद के पैदा होने से पहले] गर्भकाल में सही वातावरण और खान-पान दिया गया। परिणाम सबके सामने था। राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी राक्षस प्रवृति से अछूते थे। वह राक्षस योनि में पैदा होते हुए भी उनके विचार, सोच व संस्कार सभी उच्च स्तर के थे।
नारी केवल जननी ही नहीं, बल्कि निर्माता भी है। यह कथन सौ फीसदी सत्य है। यदि महिलाएं इस बात तो समझें। ईश्वर ने जीवन देने का अधिकार, सृष्टि में सिर्फ मां को दिया है। एक मां ही बच्चे की पहली शिक्षक कही गई है। जो बच्चा मां से सीखता है वह उसकी आदतों में, सोच में सुमार हो जाता है। एक मां को चाहिए कि वह अपने घर का वातावरण दूषित न होने दे। बच्चों से बचपन से यदि अच्छा वातावरण मिलेगा तो इसका बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
आज हमारे बच्चे वेस्टन कल्चर से अधिक प्रभावित दिखते हैं। भारत से बाहर पश्चिमी देशों में औरत को सिर्फ एक भोग्या के रूप में ही देखा जाता है। सिर्फ एक भारतीय संस्कृति ही है जिसमें स्त्री को घर के मान-सम्मान का प्रतीक माना जाता है। शास्त्रों में लिखा है कि-‘‘पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थविरे पुत्र न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति।’’ इस श्लोक के अनुसार बचपन में स्त्री की रक्षा जिम्मेदारी पिता की, विवाह के बाद पति की, बुढ़ापे में उनकी संतानों की है। जिन घरों में इस बात का ध्यान रखा जाता है वहां नारी पूरी तरह सुरक्षित रहती है और घर का मान-सम्मान बना रहता है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि पुरुष जाति का फर्ज है कि वह एक औरत के मान-सम्मान और अस्मिता की रक्षा करे। किन्तु आज रक्षक ही नारी जाति का भक्षक बना हुआ है। तो एक औरत सुरक्षित कैसे रह सकती है।
समाज की जैसी परिस्थितियां आज हैं उसके लिए बच्चे पूरी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं। बच्चे वही कर रहे हैं जो उन्हें दिया जा रहा है। इन सब परिस्थितियों में भी सबसे अधिक प्रभावित एक महिला ही हो रही है। एक बच्चे के जीवन में मां की अहम भूमिका है। वह चाहे तो बच्चे को महान या कलंकित, दोनों ही रूप दे सकती है। चयन मां को करना है। मां का कर्तव्य केवल बच्चे को जन्म देना ही नहीं है बल्कि बच्चे के भावी जीवन की नींव तैयार करना भी है। बच्चे के संपूर्ण जीवन की योग्यता पर ही भावी जीवन नींव रखी जा सकती है।
मां का कर्तव्य है कि वह बच्चे के लालन-पालन, प्यार-दुलार के साथ ही बच्चे में अच्छे संस्कार भी डाले जिसके द्वारा एक आदर्श समाज की नींव रखी जा सके। समय-समय पर बच्चों को मां के द्वारा प्रेरक कथा-कहानियां, व्याख्यान] उपदेश आदि सुनाए जाएं जो बच्चे के जीवन पर अमिट छाप छोड़ सकें। बचपन में दिया गया ज्ञान संपूर्ण जीवन में एक प्रकाश पुंज की भांति बच्चे का मार्ग दर्शन करता है। मां का प्यार-दुलार बच्चे के जीवन में एक परमात्मा का प्रकाश है। बुराई चाहे कितनी भी बड़ी या शक्तिशाली क्यों न हो अंत में हार बुराई की ही होती है।
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