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बुढ़ापे की लाठी | Old age stick

Vimla Sharma

Updated: Jul 9, 2021


मैंने उसे बहुत समझाया कि बेटे-बेटियों में कोई अंतर नहीं। फि क्या भरोसा कि अगली संतान बेटा ही जन्मे। मेरे बार-बार समझाने से उसको तो बात जंच गई। फिर एक दिन बोली, ‘‘बीवी जी! मैं तो आप की बात भली-चंगी तरह समझ गई, पर वो माने तभी तो बात बने। इसमें मैं अकेली क्या कर सकती हूं। उसका इशारा अपने पति की ओर था। मुझे इस बात की प्रसन्नता हुई कि चलो कम से कम, इस पर तो मेरे रोज-रोज के भाषण का असर तो हुआ। कुछ दिन बाद, एक दिन वह बड़ी प्रसन्न मुद्रा में मेरे पास आकर बोली, बीवी जी! हमारे वो मान गए ।

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आज देश बढती हुई जनसंख्‍या से पैदा हुई समस्‍याओं से जूझ रहा है। देश में जनसंख्‍या निरंतर बढती ही जा रही है। ऐसा नहीं है कि इन समस्‍याओं का सामना केवल देश को ही करना पडता है। सर्वप्रथम इन समस्‍याओं का सामना परिवार ही करता है। निरंतर बढते परिवार के साथ ही आमदनी नहीं बढती, जिससे परिवार की जरूरतें पूरी नहीं हो पातीं। बच्‍चे अच्‍छी शिक्षा, चिकित्‍सा, और भोजन से वंचित रह जाते हैं। परिवार में कलेह और देश में क्राइम बढता है। इसके अतिरिक्‍त अनेकों समस्‍याएं हैं जिससे देश जूझरहा है। यह केवल रूढिवादी सोच और अशिक्षा के कारण ही होता है।



महीने का तीसरा सप्ताह ही समाप्त न होता कि पैसों के लिए गिड़गिड़ाने लगती। घर में पांच-पांच बेटियां थीं और पति की आमदनी थी बहुत ही कम। कबाडी का काम करता था। इस पर भी इनकी लालसा कि अभी तो एक बेटा भी पैदा करना है, जो कि बुढ़ापे की लाठी बने।

मैंने उसे बहुत समझाया कि बेटे-बेटियों में कोई अंतर नहीं। फि क्या भरोसा कि अगली संतान बेटा ही जन्मे।

मेरे बार-बार समझाने से उसको तो बात जंच गई। फिर एक दिन बोली, ‘‘बीवी जी! मैं तो आप की बात भली-चंगी तरह समझ गई, पर वो माने तभी तो बात बने। इसमें मैं अकेली क्या कर सकती हूं। उसका इशारा अपने पति की ओर था।



मुझे इस बात की प्रसन्नता हुई कि चलो कम से कम, इस पर तो मेरे रोज-रोज के भाषण का असर तो हुआ। कुछ दिन बाद, एक दिन वह बड़ी प्रसन्न मुद्रा में मेरे पास आकर बोली, बीवी जी! हमारे वो मान गए ।

ऑपरेशन के लिए।’’ परिवार नियोजन संबंधी पत्रिकाओं के कुछ पुराने अंक मेरे पास पड़े थे। मैंने उठाकर उसे दिए थे कि अपने पति को दे । इसने मुझे बताया था कि वह छः दर्जा पढ़ा हुआ है।


मुझे अपने आप पर गर्व महसूस हुआ कि चलो कम से कम एक दम्पत्ति को तो इस रास्ते पर ला सकी। लेकिन इसके साथ ही पिछले तीस सालों की कुछ बातें मेरे मन में घुमड़ने लगीं।



हम गांव में रहते थे। अपने रिहायशी मकान के अलावा एक और भी बहुत बड़ा अहाता था। उसमें अनेक कच्चे-पक्के कमरे थे। एक दिन शहर से एक भला आदमी हमारे घर आया और पिताजी से कहा कि उसे रहने के लिए घर चाहिए। हमने उसे अहाते वाला एक बड़ा कमरा खोल दिया।

दूसरे दिन वह अपने परिवार के साथ आ गया। वह मिडल स्कूल का हैडमास्टर रह चुका था। अब आठ रुपये में मासिक पेंशन पाता था। साथ ही एक सौ पचास की कहीं नौकरी भी करता था। इतनी कम आमदनी में उसके परिवार की गुजर-बसर बड़ी कठिनाई से होती थी। इसलिए तो वे लोग गांव आ गए कि चलो मकान और इंधन का खर्चा तो बचेगा।



मास्टर जी की पत्नी को हम ताई कहते थे। वह फुरसत के समय अक्सर मेरी मां के पास आकर बैठती। एक दिन उसने बताया कि उसका एक बड़ा बेटा भी है जो दूर किसी शहर में नौकरी करता है। हर महीने मनीआर्डर से पैसे भेज देता है पर आता नहीं। हमारे पड़ोस में आने के बाद ताई ने एक बच्चे को जन्म दिया। वैसे यह बात थी तो अचम्भे की, पर गांवों में यह सब तो होता ही है।

ताई ने शर्म बस, बच्ची के जन्म की बात बेटे को नहीं लिखी। लेकिन उसे अधिक पैसों की मांग करनी पड़ी।

उनका यह बेटा भी अपने दो बड़े भाइयों की तरह शिक्षित मेहनती था। उसने भी अपने भविष्य के लिए सुंदर सपने जरूर संजाये होंगे। उसके कार्यालय और मुहल्ले से अक्सर कोई न कोई भला आदमी उसकी शादी के लिए रिश्ता लेकर आता, पर घर की माली हालत ठीक न होने के कारण वह टालमटोल कर जाता।



ऐसे ही घर से जब सात छोटे बहन भाईयों (पांच बहने, तीन भाई) के बार-बार पत्र आने लगे तो उसने भी सोचा कि यह दिवाली घर पर ही मनानी चाहिए और आने वाले रिश्तों के विषय में माता-पिता से बात करेगा। यही सोच-सोचकर और मन में उमंगे लिए रात को वह घर पहुंचा।

छोटे बहिन-भाइयों को मालूम था कि भाई को, माता-पिता की इस नयी कारगुजारी की जानकारी नहीं। और तभी अचम्भे में डालने के लिए नन्हीं बच्ची को उसकी गोद में डाल दिया। बच्ची को देखकर वह ऐसा चौंका कि उसे बिच्छू ने काट लिया हो। उचक कर पांव पीछे हटा लिया। नवजात बच्ची उसकी गोदी में गिर गई। मां तो मारे शर्म किवाड़ की ओट में खड़ी रही। और भाई बहिन सहम कर एक-दूसरे को देखने लगे।

पिता ने ममतावश बच्ची को धरती से उठा चारपाई पर डाला तथा पुत्र को समझाया कि जन्म-मरण अपने वश में थोड़े ही है। पर उसकी समझ में यह बेतुकी बात कैसे आती। उल्टे पांव वापिस शहर चला गया। जाते हुए यह भी कह गया- कभी भी इस घर में नहीं आएगा। ऐसा ही उसके दोनों भाइयों ने भी कहा था।



दूसरे दिन, यह सब बातेें ताई ने रो-रोकर मां को बताई थीं। मां ने समझाया था कि समय के साथ-साथ सब ठीक हो जाता है, इसलिए परेशान होने की कोई बात नहीं। आज जब अपनी ‘काम वाली महरी’ की समझ में छोटे परिवार के फायदे वाली बात आ गई तो मेरे मन में ताई के परिवार की बात आ गई। वह अपने आप से ही कहने लगी, ‘‘काश, उन लोगों ने भी सोचा होता।’’ तो उस वृद्ध दम्पति को बुढ़ापे में भी रोजी-रोटी क लिए पापड़ न बेलने पड़ते। और न ही जवान बेटे दुखी होकर घर जाते समय दहलीज़ पर पांव पटक कर यह नहीं कह जाते कि वे कभी भी इस घर में कदम नहीं रखेंगे।



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