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Vimla Sharma

मुद्रा चिकित्सा | Posture therapy

Updated: Sep 16, 2021


मुद्रा चिकित्सा योग विज्ञान का अटूट अंग है। अधिकतर लोगों को आसन और प्राणायाम की जानकारी तो है किन्तु मुद्रा चिकित्सा के बारे में कम ही लोग जानकारी है। अधिकतर मुद्रा 45 मिनट में तत्व को परिवर्तित करने की क्षमता रखती हैं। यही कारण है कि जो लोग किसी कारणवश आसन या प्राणायाम नहीं कर पाते वह मुद्रा चिकित्सा के द्वारा लाभ उठा सकते हैं। हमारे पास व्यायाम के लिए समय नहीं हैं, अधिकतर लोग असाध्य रोगों से पीडित हैं। मुद्रा चिकित्सा के नियमित अभ्यास से आप स्वय्र को स्वस्थ और निरोगी रख सकते हैं।

 

मानव शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। ये पांचों तत्व अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल व आकाश का जब शरीर में असंतुलन पैदा होता है तो शरीर अस्वस्थ होना आरम्भ हो जाता है। स्वस्थ शरीर के लिए पांचों तत्वों का संतुलन में होना अत्यंत आवश्यक है। मुद्रा विज्ञान इन्हीं पांचों तत्वों पर आधारित विज्ञान है। मुद्रा विज्ञान के अनुसार हमारे हाथ की पांचों उंगलियां अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल व आकाश का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह विज्ञान है। इसे नकारा नहीं जा सकता। पांचों उंगलियों से चुंबकीय तरंगे निकलती हैं, मुद्रा विज्ञान के अनुसार उंगलियों पर सही मात्रा में स्पर्श अथवा दवाब दिया जाये तो पंचतत्वों का संतुलन स्थापित होता है और कई बीमारियों का निदान होता है।



शरीर की समस्त प्रणालियों का संचालन पंच तत्वों के आधार पर ही होता है। हमारे स्वास्थ्य का सीधा संबंध इन पांच तत्वों से है। जब तक यह संतलित रहते हैं हम स्वस्थ रहते हैं।

हमारे शरीर में जल 70%, पृथ्वी 12%, वायु 6%, अग्नि 4%, और आकाश 6% हैं। इन सबमें आकाश और वायु समान हैं, आज इन्हीं दोनों तत्वों आकाश और वायु का संतुलन बिगड चुका है। इसका मुख्य कारण है हमारी निरंतर बिगडती जीवन शैली और विकृत भोजन। लाइफ स्टाइल ऐसा हो गया है कि हम पानी कम पीते हैं, जंक फूड के द्वारा भोजन अधिक करते हैं। सब मिलाकर निरंतर असंतुलन बढता ही जा रहा है।

यदि शरीर में पांचों तत्वों का संतुलन बना रहे तो व्यक्ति स्वस्थ रहता है। आइये जानते हैं कि ये पंचतत्व तत्व में शरीर में क्या कार्य करते हैं।



अग्नि तत्व: अग्नि तत्व से शरीर में गर्मी पैदा होती है, और गर्मी से ऊर्जा पैदा होती है। शरीर में ऊर्जा का सर्वाधिक स्थान मस्तिष्क से है। मस्तिष्क द्वारा ही शरीर की समस्त गतिविधियों का संचालन होता है। अत: मस्तिष्क का संबंध अग्नि तत्व से है। हमारे उदर में पांच प्रकार की अग्नि हैं- आमाश्य, लिवर, पैंक्रियाज, छोटी आंत का पहला भाग व तिल्ली। ये सभी मिलकर भोजन का पाचन करते हैं। पाचन से ही शरीर को ऊर्जा मिलती है।



अग्नि तत्व के असंतुलन से उत्पन्न रोग: खाज-खुजली, एग्जिमा, छाती में जलन, बवासीर, उच्च रक्तचाप, बुखार, गुस्सा, मानसिक तनाव, और कैंसर जैसे रोग शरीर में अग्नि तत्व के बढने से ही उत्पन्न होते हैं।

शरीर में अग्नि तत्व की कमी से त्वचा ठंडी रहती है। सर्दी-जुकाम, सायनस, ब्रौंकाइटिस, निमोनिया जैसे रोग हो जाते हैं। शरीर में ऊर्जा की कमी होने लगती है। स्मरण शक्ति कमजोर पड जाती है। शरीर का मेटाबोल्जिम बिगड जाता है। शरीर में फैट जमा होने लगता है और मोटापा बढता है।

वायु तत्व: शरीर में वायु का कार्य शरीर में गति उत्पन्न करना है। हमारे शरीर की समस्त हिलने-डुलने की क्रियाएं, गति के समस्त कार्य वायु तत्व द्वारा ही संचालित होते हैं। जैसे उठना-बैठना, चलना-फिरना, आगे-पीछे, हाथों से काम लेना आदि। हम श्वास भी वायु तत्व के द्वारा ही लेते हैं। वायु से ही शरीर में अग्नि प्रचंड होती है।

वायु तत्व के असंतुलन से उत्पन्न रोग: शरीर में वायु के असंतुलन और वायु के बढने से शरीर में दर्द, गैस, रक्त संचार में बाधा, जोडों में दर्द, कमर दर्द, सवाइकल, सायटिका, हृदय पीडा, हृदयघात, लकवा, पोलियो आदि रोग होने का खतरा बढ जाता है।


आकाश तत्व: आकाश का अर्थ है खुला स्थान अथवा खालीपन। अनंत आकाश। आकाश तत्व से ध्वनि पैदा होती है। हमारे शरीर में बोलने और सुनने का कार्य आकाश तत्व के द्वारा संचालित होता है। बोलने और सुनने की नाडियों का संबंध गले से है। हडिडयों का संबंध भी आकाश तत्व से ही है। शरीर के जोडों क बीच जो खाली स्थान होता है, समस्त कोशिकाओं में खाली स्थान आकाश तत्व ही है। जब यह शरीर में बढ जाता है तो हमारा शरीर उदारवादी, मैत्रीभाव पैदा होता है, हमारा झुकाव आध्यात्मिकता की ओर होने लगता है।



आकाश तत्व के असंतुलन से उत्पन्न रोग: शरीर में आकाश तत्व के बढने से बोलने-सुनने की समस्या, कफ रोग, गले के रोग, कानों के समस्त रोग, बच्चों का तुतलाना, छोटे बच्चों का देर से बोलना, गूंगा-बहरा होना, थायरॉयड जैसे रोग होने लगते हैं। जोडों मे बीच खाली जगह बढने से जोडों के दर्द की समस्या बढती है। शरीर में कैल्शियम की कमी होती है। यदि शरीर में आकाश तत्व की कमी हो जाये तो लोग स्वार्थी बनते हैं, सहनशीलता कम होने लगती है। मैत्री भाव समाप्त हो जाता है।

पृथ्वी तत्व: पृथ्वी से हमें भोजन प्राप्त होता है। पृथ्वी हमें स्थायित्व प्रदान करती है। पृथ्वी तत्व से शरीर का निर्माण होता है। पृथ्वी तत्व में संतुलन- मजबूती, ठहराव, धैर्य, अनुशासन, विकसित व्यक्तित्व होता है।

पृथ्वी तत्व के असंतुलन से उत्पन्न रोग: शरीर में पृथ्वी तत्व बढने से शरीर का वजन बढने लगता है। मोटापा बढने से कोलेस्ट्राल, मधुमेह, शरीर में भारीपन, उदासी, मानसिक तनाव, आदि रोग उत्पन्न होने लगते हैं।

इसके विपरीत यदि पृथ्वी तत्व कम होने लगता है तो खून की कमी, दुर्बलता, हीमोग्लाबिन की कमी, विटामिन्स व खनिज पदार्थों की कमी, हडि्डयों और मांसपेशियों की कमजोरी, कमजोर बच्चे, बच्चों में शारीरिक विकास न होना, बच्चों का कद न बढना, बालों का झडना, सर्दी-जुकाम होना, अस्थमा, इम्यून सिस्टम की कमजोरी, हर्निया जैसे रोग होने लगते हैं।



जल तत्व: हमारे शरीर में 72 प्रतिशत जल है। रक्त में 80 प्रतिशत जल है, मस्तिष्क में 92 प्रतिशत जल है। हार्मोन भी पानी से ही बनते हैं। महिलाओं का अंडकोश, पुरूषों में वीर्य भी पानी से ही निर्मित होता है। मूत्र प्रणाली, जल तत्व द्वारा ही कार्य करती है। हमारे शरीर की सभी मांस पेशियों की लचक, त्वचा की कोमलता, यौवन, आभा, सौंदर्य, बालों की कोमलता, आंखों की कोलता सभी जल तत्व के द्वारा ही संचालित होते हैं। जल तत्व, वीर्य, मज्जा, रक्त, शीतलता, प्रसन्नता, स्वाद और सौंदर्य का प्रतीक है।



जल तत्व के असंतुलन से उत्पन्न रोग: शरीर में जल तत्व के बढने से शरीर के किसी भी अंग में पानी भरने लगता है। फेफडों में पानी भरना, मस्तिष्क में पानी भरना, टखनों में पानी भरना आदि रोग होने की संभावना बढ जाती है।

यदि शरीर में जल तत्व की कमी हो जाये तो त्वचा में सूखापन, त्वचा रोग, हाथ-पैर, एडियों और होंठो का फटना शुरू हो जाता है। त्वचा की कोमलता समाप्त हो जाती है। चेहरे पर झुर्रियां, दाग-धब्बे, पिपल्स, मोतियां बिंद, फायब्रायडज का बनना, प्रजनन अंगों के रोग, ओवररीज, गर्भाश्य, मूत्र संबंधी रोग, गुर्दे और मुत्राशय में पथरी जैसे रोग होने लगते हैं।



पांच तत्वों को संतुलित कैसे करें?

प्रकृति का यह नियम का यह नियम है कि जो वस्तु जिससे बनी है उसी से ही ठीक भरी होगी। लोहे से बनी वस्तु की मरम्मत में लोहे का प्रयोग होगा, मिट्टी से बनी वस्तु मि्ट्टी से ठीक होगी। ठीक इस प्रकार ही शरीर में जिस तत्व का भी असंतुलन है वह वह उसी तत्व के द्वारा ही संतुलित होगा।

यहां हम कुछ मुद्राओं के बारे में चर्चा करेंगे जो पंच तत्वों पर आधारित हैं-

सूर्य मुद्रा

जैसा की नाम से ही स्पष्ट है सूर्य अग्नि का स्रोत है। यह मु्द्रा शरीर में पृथ्वी तत्व की अधिकता को कम करती है।

जो व्यक्ति सर्दी से परेशान रहते हैं उन्हें सूर्य मुद्रा का नियमित अभ्यास करना चाहिए।

सूर्य मुद्रा के अभ्यास से मोटापा, थुलथुलापन, भारीपन, स्थूलता समाप्त हो जाती है। यह मुद्रा मोटापा कम करने में बेहद लाभकारी है।

मधुमेह के रोगियों के लिए यह मुद्रा बहुत ही अधिक लाभकारी है। यह मुद्रा शरीर में बढी हुई शुगर को जला देती है, इससे कब्ज, मधुमेह आदि ठीक होते हैं। रक्त में यूरिया पर नियंत्रण होता है। लिवर के सभी रोग ठीक होते हैं।

यदि शरीर में अग्नि तत्व कम हो रहा हो तो सूर्य मुद्रा का नियमित अभ्यास करना चाहिए।

नोट: उच्च रक्तचाप वालों को सूर्य मुद्रा का अभ्यास नहीं करना चाहिए।

वरूण मुद्रा:

यह मुद्रा शरीर में जल तत्व की अधिकता हो जाने पर लगानी चाहिए। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से शरीर में बढे जल तत्व को संतुलित करती है। इसलिए इसे जलोदर मुद्रा भी कहते हैं।

यह फेफडों में पानी भर जाये तो इस मु्द्रा का अभ्यास करना चाहिए।

शरीर में कहीं भी सूजन आ जाये तो इस मुद्रा का अभ्यास करना लाभदायक है।

नजले, जुकाम जब नाक और आंखों से पानी बह रहा हो तो इस मुद्रा का लगाना चाहिए।



आकाश मुद्रा:

यह मुद्रा आकाश तत्व का प्रतीक है। जब अग्नि और आकाश तत्व आपस में मिलते हैं तो आकाश जैसे खुलेपन, विस्तार का आभास होता है। इसके नियमित अभ्यास से शरीर में आकाश तत्व की बढोतरी होती है। आकाश मुद्रा से शून्यता समाप्त होती है। खालीपन निर्थकता, खोखलापन, मूर्खता दूर होती है।

आकाश मुद्रा के अभ्यास से सुनने की शक्ति बढती है, कान के अन्य रोग भी दूर होते हैं। जैसे कानों का बहना, कानों में झुनझुनाहट, कानों का बहरापन आदि।

आकाश मुद्रा के अभ्यास से हृदय रोग, उच्च रक्तचाप ठीक होता है क्योंकि हृदय का सीधा संबंध आकाश से है।

हडि्डयां मजबूत होती है। शरीर में कैल्शियम की कमी दूर होती है। यह मुद्रा ओस्टीयोपोरोसिस में बेहद लाभकारी है।



पृथ्वी मुद्रा:

पृथ्वी तत्व हमें स्थूलता, स्थायित्व देता है। इससे शरीर में पृथ्वी तत्व बढता है। अनामिका अंगुली सभी विटामिनों एवं प्राण शक्ति का केन्द्र मानी जाती है।

शरीर में विटामिनों की कमी को दूर करती है। जिससे शरीर में ऊर्जा का प्रवाह बढता है। इस मुद्रा के अभ्यास से चेहरे पर चमक आती है।

शरीर में अस्थि संस्थान एवं मांस-पेशियों को यह मुद्रा मजबूत बनाती है। अत: दुर्बल बच्चों, व्यक्तियों के लिए पृथ्वी मुद्रा बहुत ही लाभकारी है।

पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से शरीर में शक्ति का विस्तार होता है। काया सुडौल होती है। कद व वजन बढाने में सहायक है। बढते और कमजोर बच्चों के लिए यह बहुत अधिक लाभदायक है।

इस मुद्रा के अभ्यास से आंतरिक प्रसन्नता का आभास होता है। उदारता, विचार शीलता, लक्ष्य को अहम बनाकर प्रसन्नता प्रदान करती है।

इस मुद्रा से पाचन शक्ति ठीक होती है। जिन लोगों और बच्चों की पाचन शक्ति कमजोर होती है उन्हें इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए।

इस तत्व का संबंध मूलाधार चक्र से है। अत: पृथ्वी मु्द्रा से मूलाधार चक्र सक्रिय होता है, इससे जुडे अंग प्रबल होते हैं। हर्निया ठीक होता है।

पृथ्वी मुद्रा का अभ्यास शरीर में पृथ्वी के तत्व के कम होने पर ही करना चाहिए।



इंद्र मु्द्रा:

मानव शरीर में हाथ की सबसे छोटी उंगली जल तत्व की प्रतीक है। कनिष्ठ उंगली और अंगूठे के अग्रभाग को मिलाकर इंद्र मुद्रा लगायी जाती है। बाकी की तीन उंगलियां सीधी रखें। इस मुद्रा का उद्देश्य शरीर में जल तथा अन्य तत्वों का संतुलन बनाये रखना है इस मुद्रा का हमारे स्वास्थ्य के लिए बडा महत्व है। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से कई रोगों से बचा जा सकता है।

अनेक त्वचा रोग जैसे दाद, खाज खुजली, चेहरे की झुर्रियां आदि इस मुद्रा से ठीक हो जाते हैं।

ग्रीष्म ऋतु में इस मुद्रा के अभ्यास से अतिशार, डायरिया, आदि से काफी हद तक बचा जा सकता है।

मूत्र रोग, गुर्दे के रोग मधुमेह, में यह मुद्रा बेहद लाभकारी है।

हैजा, दस्त आदि से शरीर में पानी की कमी हो जाती है। इस प्रकार के रोगों में यह मुद्रा रामबाण का कार्य करती है।

आंखों में जलन, सूखापन हो तो यह मुद्रा लगायें, लाभ मिलेगा।

हमारे शरीर में रक्ता का 80 प्रतिशत भाग जल ही है। उच्च रक्तचाप, कोलेस्ट्राल बढ जाने के कारण रक्त गाढा हो जाता है। रक्त की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए इस मुद्रा का अभ्यास करें।

निम्न रक्तचाप से ग्रसित व्यक्ति इस मुद्रा का अभ्यास न करें।




ध्यान मु्द्रा:

ध्यान मुद्रा, मुद्रा विज्ञान की आत्मा है। इसे ज्ञान मुद्रा केे नाम से भी जाना जाता है। यह एक मात्र ऐसी मुद्रा है जिसे लगातार 24 घंटे तक भी लगाया जा सकता है अर्थात इसकी कोई समय सीमा तय नहीं है। यह मुद्रा आत्मा, मन, बुद्धि और शरीर के सभी अंगों को प्रभावित करती है। यह मुद्रा रोग प्रतिरोधक भी है।

अंगूठा, मंगल और तर्जनी बृहस्पति को ग्रह का प्रतिनिधित्व करती हैैं, इसलिए जब अंगूठे और तर्जनी को मिलाया जाता है तो भाग्योदय होता है। शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है।

नियमित रूप से ध्यान मुद्रा का अभ्यास करने से मानसिक तनाव दूर होता है, रक्तचाप सामान्य रहता है। हृदय संबंधी बीमारियों का खतरा कम हाेेेेता है।

अंगूठे के अग्र भाग मेें मस्तिष्क व पिटयुटरी ग्रंथि के दवाब बिंदु होते हैं और तर्जनी के अग्र भाग में मन का बिंदु हैै। इन दोनों बिंदु का हल्केे सेे स्पर्श से ही दवाब बनता है तो मन, मस्तिष्क और पिटयुटरी ग्रंथि तीनों जाग्रत हो जाते हैं और जब अग्नि और वायु के संपर्क से जब अग्नि प्रचण्ड होती है तो मन और मस्तिष्क की विकृतियां दूर हो जाती हैं। यह मुद्रा हृदय रोगियों केे लिए बहुत अधिक लाभ दायक है।

रक्तचाप को सामान्य बनाए रखने के लिए इस मुद्रा को सुबह और शाम 30-30 मिनट के लिए करें। इससे न केवल उच्च रक्तचाप जल्दी ठीक होता है, बल्कि बाद में सामान्य भी रहने लगता है। यह मुद्रा हृदय से संबंधित रोगों में भी बहुत लाभकारी है। हमारे शरीर में वात, पित्त और कफ का संतुलन बनाने के लिए यह काफी प्रभावशाली मुद्रा है।



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